जय श्रीमन्नारायण,
भगवान के पवित्र नामों का स्मरण तथा कीर्तन मात्र का कितना पूण्य है, ये बात साक्षात् श्री गणेश, महेश, शेष एवं शारदा भी नहीं कर सकते । और ये बात यहाँ भगवत जी के इन श्लोकों से स्पष्ट होता है । ये केवल किसी के मन की बात नहीं है, अपितु इस बात का प्रमाण यहाँ उपलब्ध है ।।
और इसीलिए सत्संग की भी महिमा अनंतानंत गाई गई है हमारे शास्त्रों में । सत्संग मात्र से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है । मनुष्य का भगवान की अदभुत लीलाओं से साक्षात्कार होता है ।।
सत्संगति मुद मंगल मूला - हर प्रकार के मंगलों का मूल है, सत्संग ।।
मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा, न कथ्यते यद्भगवानधोक्षजः ।।
तदेव सत्यं तदु हैव मङ्गलं, तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम् ।।४८।।
अर्थ:- जिस वाणी के द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम, लीला, गुण आदि का उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर निरर्थक है – सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुंदर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है । जो वाणी और वचन भगवान के गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय है, वे ही परम सत्य है ।।४८।।
तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं, तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां, यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ।।४९।।
अर्थ:- जिस वचन के द्वारा भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है । उससे अनन्त काल तक मन को परमानन्द की अनुभूति होती रहती है । मनुष्यों का सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लम्बा और गहरा क्यों न हो, उस वचन के प्रभाव से सदा के लिए सुख जाता है ।।४९।।
न तद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो, जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।।
तद्ध्वाङ्क्षतीर्थं न तु हंससेवितं, यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ।।५०।।
अर्थ:- जिस वाणी से - चाहे वह रस, भाव, अलंकर आदि से युक्त ही क्यों न हो – जगत को पवित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का गान कभी नहीं होता, वह तो कौओं के लिए उच्छिष्ट फेंकनें के स्थान के समान अत्यन्त अपवित्र है । मानससरोवर – निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते । निर्मल ह्रदय वाले साधुजन तो वहीँ निवास करते हैं, जहाँ जहाँ भगवान रहते हैं ।।५०।।
www.sansthanam.com
www.sansthanam.blogspot.com
www.facebook.com/sansthanam
।। नमों नारायण ।।
भगवान के पवित्र नामों का स्मरण तथा कीर्तन मात्र का कितना पूण्य है, ये बात साक्षात् श्री गणेश, महेश, शेष एवं शारदा भी नहीं कर सकते । और ये बात यहाँ भगवत जी के इन श्लोकों से स्पष्ट होता है । ये केवल किसी के मन की बात नहीं है, अपितु इस बात का प्रमाण यहाँ उपलब्ध है ।।
और इसीलिए सत्संग की भी महिमा अनंतानंत गाई गई है हमारे शास्त्रों में । सत्संग मात्र से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है । मनुष्य का भगवान की अदभुत लीलाओं से साक्षात्कार होता है ।।
सत्संगति मुद मंगल मूला - हर प्रकार के मंगलों का मूल है, सत्संग ।।
मृषा गिरस्ता ह्यसतीरसत्कथा, न कथ्यते यद्भगवानधोक्षजः ।।
तदेव सत्यं तदु हैव मङ्गलं, तदेव पुण्यं भगवद्गुणोदयम् ।।४८।।
अर्थ:- जिस वाणी के द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम, लीला, गुण आदि का उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर निरर्थक है – सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुंदर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है । जो वाणी और वचन भगवान के गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय है, वे ही परम सत्य है ।।४८।।
तदेव रम्यं रुचिरं नवं नवं, तदेव शश्वन्मनसो महोत्सवम् ।।
तदेव शोकार्णवशोषणं नृणां, यदुत्तमःश्लोकयशोऽनुगीयते ।।४९।।
अर्थ:- जिस वचन के द्वारा भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है । उससे अनन्त काल तक मन को परमानन्द की अनुभूति होती रहती है । मनुष्यों का सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लम्बा और गहरा क्यों न हो, उस वचन के प्रभाव से सदा के लिए सुख जाता है ।।४९।।
न तद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो, जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।।
तद्ध्वाङ्क्षतीर्थं न तु हंससेवितं, यत्राच्युतस्तत्र हि साधवोऽमलाः ।।५०।।
अर्थ:- जिस वाणी से - चाहे वह रस, भाव, अलंकर आदि से युक्त ही क्यों न हो – जगत को पवित्र करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का गान कभी नहीं होता, वह तो कौओं के लिए उच्छिष्ट फेंकनें के स्थान के समान अत्यन्त अपवित्र है । मानससरोवर – निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसका कभी सेवन नहीं करते । निर्मल ह्रदय वाले साधुजन तो वहीँ निवास करते हैं, जहाँ जहाँ भगवान रहते हैं ।।५०।।
www.sansthanam.com
www.sansthanam.blogspot.com
www.facebook.com/sansthanam
।। नमों नारायण ।।
No comments:
Post a Comment