जय श्रीमन्नारायण,
भक्ति विषयक - भगवान कपिल और माता देवहूति का सम्वाद ।।
मित्रों, जैसा की मैंने अपने पहले लेख में बताया था, कि आगे भगवान कपिल और माता देवहूति के सम्वाद की चर्चा करेंगे । तो आइये आज माता देवहूति के प्रश्न और भगवान कपिल के द्वारा दिए गए उत्तर के विषय पर चर्चा को कुछ और आगे बढायें ।।
श्रीमद्भागवत महापुराण - स्कन्ध तृतीय - अध्याय - २५ वाँ ।।
शौनक उवाच:-
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता भगवानात्ममायया ।।
जातः स्वयमजः साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ।।१।।
अर्थ:- शौनक जी ने पूछा – आदरणीय सूतजी ! तत्वों की संख्या का निर्धारण करनेवाले भगवान कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिए अपनी माया से उत्पन्न हुए थे ।।१।।
सूतजी ने कहा- शौनक जी, मैं आपको विदुर - मैत्रेय सम्बाद, जिसमें विदुर जी के इसी प्रश्न के उत्तर में मैत्रेय ऋषि ने जो कुछ कहा था बताता (सुनाता) हूँ ।।
मैत्रेय उवाच:-
पितरि प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।।
तस्मिन्बिन्दुसरेऽवात्सीद्भगवान्कपिलः किल ।।५।।
अर्थ:- श्री मैत्रेय जी ने कहा – आदरणीय विदुर जी ! पिता के वन में चले जाने पर भगवान कपिल जी अपनी माताजी का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे ।।५।।
देवहूतिरुवाच:-
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ।।७।।
अर्थ:- माता देवहुति बोलीं – हे भुमन् ! हे प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय लालसा से मैं बहुत उब गयी हूँ और इनकी इच्छाएँ पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ।।७।।
अब आपकी कृपा से (आपको जन्म देने से) मेरी जन्म परम्परा समाप्त हो चुकी है । इसी से इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिए सुन्दर नेत्र रूप आप प्राप्त हुए हैं ।।
आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान आदिपुरुष हैं । तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिए नेत्ररूप सूर्य की भाँती उदित हुए हैं । हे देव ! इन देह-गेह आदि में जो मैं मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है । अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ।।
तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ।।११।।
अर्थ:- आप अपने भक्तों के संसार रूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान हैं । मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ । आप भागवत धर्म जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।।११।।
मैत्रेय उवाच:-
इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं निशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गतिर्बभाष ईषत्स्मितशोभिताननः ।।१२।।
अर्थ:- श्रीमैत्रेय जी कहते हैं – इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्षमार्ग में अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी । उसे सुनकर आत्मज्ञ पुरुषों की गति श्री कपिल जी उसकी मन ही मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुस्कान से सुशोभित मुखारविन्दों से इस प्रकार कहने लगे ।।१२।।
श्रीभगवानुवाच:-
योग आध्यात्मिकः पुंसां मतो निःश्रेयसाय मे ।।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ।।१३।।
अर्थ:- भगवान कपिल ने कहा – माता ! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है । जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ।।१३।।
हे माते ! हे साध्वि ! सब अंगों से संपन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने उनकी सुनने की इच्छा होनेपर वर्णन किया था । वही अब मैं आपको सुनाता हूँ । इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण इसका मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होनेपर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होनेपर वही मोक्ष का कारण बन जाता है ।।
जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है । उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है । तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त ह्रदय से आत्मा को प्रकृति से परे एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःख से रहित {शून्य}) देखता है । तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है ।।
न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि ।।
सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ।।१९।।
अर्थ:- योगियों के लिए भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है ।।१९।।
प्रसङ्गमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ।।२०।।
अर्थ:- विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं । किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों – महापुरुषों के प्रति हो जाय तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ।।२०।।
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ।।२१।।
अर्थ:- जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितु, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण तथा कीर्तन करते हैं और मुझमें ही अपने चित्त को लगाये रहते हैं – उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ।।
अत: हे साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसंग परित्यागी महापुरुष ही साधू होते हैं । तुम्हें उन्हीं के संग की इच्छा करनी चाहिए । क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न दोषों को हर लेनेवाले होते हैं ।।
सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ।।२६।।
अर्थ:- सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रम का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा ह्रदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होता है ।।२५।।
फिर मेरी सृष्टि आदि की लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जानेपर मनुष्य सावधानता पूर्वक योग के भक्ति प्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिए यत्न करेगा ।।
इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्य युक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है ।।
आगे के अपने व्याख्यान में भगवान कपिल ने बहुत ही सुन्दर भक्ति योग के दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं और सरल से सरल भाषा में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की व्याख्या की है । तो मैं अपने अगले अंक में आप सभी मित्रों को उस गूढ़ ज्ञान से भी अवगत करवाते रहने का प्रयत्न करूँगा ।।
आप सभी अपने मित्रों को इस पेज को लाइक करने और संत्संग से उनके विचारों को धर्म के प्रति श्रद्धावान बनाने का प्रयत्न अवश्य करें ।।
भगवान नारायण और माता महालक्ष्मी सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।
।। नमों नारायण ।।
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