जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, धार्मिकता की चादर ओढ़े हुए एक और कालनेमि राक्षस का अब अन्त हो गया । श्रद्धा और अन्धश्रद्धा में बहुत ही सूक्ष्म अंतर है । जिसे हमलोगों को ही पहचानना है । हम ही हैं जो ऐसों को बढ़ावा देते हैं ऐसा कहना कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं होगा ।।
हम जिसे भी बाबा मान लेते हैं उसकी किसी भी कमी को देखना-सुनना नहीं चाहते । और ऐसी स्थितियों में कुछ लोगों का एक ही उद्देश्य होता है, किसी भी तरह से लोगों को अपने ओर आकर्षित करना । अब इसके लिए चाहे कुछ भी बोलना पड़े तो वो उससे कोई परहेज नहीं करते ।।
ऐसा नहीं होता, की कोई नया व्यक्ति आये और आपको स्पर्श करके अथवा नज़रों से निहार कर मुक्ति दे दे । अगर ऐसा होता तो हमारे ऋषियों ने कर्मयोग की पद्धति नहीं बनायीं होती और ना ही भगवान कृष्ण को गीता में कर्मयोग का पाठ पढ़ाना पड़ता अर्जुन को । हमारे शास्त्र हमें कर्मयोग का मार्ग दर्शाते हैं और उसी मार्ग पर चलकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होना बताया है ।।
मित्रों, कुछ लोग तरह-तरह के मुद्दे को लेकर आते हैं । जिसमें एक जातिवाद का मुद्दा सबसे प्रमुख है । जिसे लेकर और कुछ विशेष जाती को लक्ष्य करके अपनी बाबागिरी और नेतागिरी शुरू करते हैं । लोग उनकी बातों में आकर अपने सबसे बड़े हितैषी ब्राह्मणों और संतों को ही अपना शत्रू मान लेते हैं तथा धर्म अधर्म का बिना विचार किये ही कुछ भी बोलने लगते हैं ।।
मैंने इस विषय को कई बार उठाया है, फिर भी आज भी एक बार और बताना चाहता हूँ, कि हमारे ऋषियों ने कहीं भी किसी भी शास्त्रों में ऐसा कोई व्याख्यान नहीं दिया की कोई ऊँची जात का है तो उसको भगवान मान लो और कोई नीची जात का है तो उसे राक्षस मान लो । हाँ अपने से श्रेष्ठ जन जो आपसे किसी भी तरह से श्रेष्ठ हो ऐसे लोगों को सम्मान देना आवश्यक बताया है । लेकिन अगर जाती के आधार पर भगवान होना तय होता तो राक्षस जितने भी हुए उसमें अधिकांशतः ब्राह्मण ही नहीं होते । और ना ही हमारे पूर्वज (ऋषिजन) उन्हें भगवान घोषित करते जो लगभग ज्यादा से ज्यादा ब्राह्मणेत्तर थे । क्योंकि लेखन का विषय तो ब्राह्मणों का ही रहा है ।।
सृष्ट्यादौ ब्राह्मणस्य जतिरेका प्रकीर्तिताः । इस श्लोक के अनुसार – सृष्टि के आरम्भ में एक ही जाती थी और वो थी ब्रह्मा के संतान की । लेकिन जनसँख्या जैसे-जैसे बढ़ती गयी, लोग अपना-अपना समुदाय और अपने-अपने कर्मों का निर्धारण करते गए । और इस तरह से ये समाज इतना विशाल हो गया की अपनी-अपनी पहचान अलग-अलग बना ली । फिर भी उनमें कोई आपसी वैमनस्य जाती के आधार पर नहीं थी । हाँ सत्य और असत्य तथा धर्म और अधर्म के लिए युद्ध अवश्य ही होते थे ।।
हमारे वैदिक सनातन व्यवस्था में कभी किसी को भी ऊँच-नीच की दृष्टि से देखने की बात कहीं अगर कही भी गयी हो कदाचित् तो वो भी उनके कर्मों के आधार पर ही कही गयी होगी । इस बात का प्रमाण गीता से मिलता है –
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥
अर्थ:- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान ।।१३।।
अब यहाँ विचारणीय बात ये है, कि अगर किसी ने अपने कर्म खुद ही बना लिए की मैं तो ऐसा ही रहूँगा, तो उसमें किसी का क्या दोष ? इसके अलावा एक और भी बात है, कि यदि कोई श्रेष्ठ कर्म का परित्याग कर दे, तो वो श्रेष्ठ कुल से पतित भी हो जाता था । अब इस श्लोक का अभिप्राय मुझे तो यही लगता है । और शास्त्रों में इस बात का बहुत सारा प्रमाण भी मिलता है ।।
तथा विश्वामित्र आदि न जाने कितने ही लोग अपने सत्कर्मों के ही बल से ब्रह्मर्षि तक की उपाधि को प्राप्त हो गए । तो ये कहना की हमारे धर्म में बनायीं गयी जाती व्यवस्था किसी को निचा दिखाने के लिए है, सर्वथा अनुचित ही होगा । और इस बात का लाभ उठाना तो अत्यंत अधम विषय है, लेकिन फिर भी न जाने कितने ही राजनेताओं और बाबाओं ने इस विषय का लाभ उठाया है लोगों को मुर्ख बनाकर और आज भी उठा रहे हैं ।।

मुझे आश्चर्य तो तब होता है, की मिडिया जिसे लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है, वो मिडिया के कुछेक लोग हमारे धर्म के सम्पूर्ण अंग को ही कटघरे में खड़े कर देते हैं जब भी कोई इस तरह का कालनेमि राक्षस उन्हें मिल जाय । लेकिन हमें लगता है, की अगर मिडिया है, तो उसे ऐसे कालनेमियों को ढूंढ़कर उनका पर्दाफास करना चाहिए न की हमारे संस्कृति और किसी एक धर्म को टारगेट करके पुरे धर्म पर सवाल खड़े करने चाहिएँ ।।
मित्रों, ऐसे लोग जो वास्तव में हैं तो विषयी, लेकिन दिखावा करते हैं संत होने का । जबकि होना ये चाहिए कि संत होकर दिखावा करे गृहस्थ होने का । यथा -
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।
अर्थ:- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार से कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे (करने का दिखावा करे) ।।२५।।
लेकिन इसके बाद भी कोई सच्चा महात्मा अथवा कोई सच्चा ज्ञानी कभी भी किसी प्रकार का भ्रम किसी उस परम ज्ञान तक न पहुंचे हुए व्यक्ति की बुद्धि में भ्रम पैदा न करे । लेकिन हमारे यहाँ कुछ ऐसे संत हुए, जिनका नाम लेने मात्र से ही कुछ लोग (कुछ समाज विशेष के लोग)नाराज होकर तरह-तरह की टिप्पड़ी करने लगते हैं । और इस बात का प्रमाण ये देखिये यहाँ गीता के चतुर्थ अध्याय के इस श्लोक में -
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम् ।जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।
अर्थ:- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए ।।२६।।
चलो मान लिया की किसी को ये ज्ञान हो गया कि पत्थर तो पत्थर होता है, इसमें भगवान कैसा ? मैं कहता हूँ, कि हो सकता है, कि सच्चा ज्ञान यही हो । हो सकता है ऐसा कहनेवाले सच्चे ज्ञानी हों । उन्हें भगवान मिल गया हो और भगवान का कोई अलग ही रूप अथवा निराकार ही उन्हें दीखता हो । अगर ऐसा हो भी कदाचित् तो भी जिन्हें इस बात पर पूर्ण श्रद्धा है, कि एक पत्थर की मूर्ति में ही भगवान होता है, और वो हमारी प्रार्थना सुनता है । ऐसे लोगों के समक्ष इस प्रकार की बातें करके ऐसे तथाकथित ज्ञानियों को भोले-भाले लोगों के मन में भ्रम एवं अश्रद्धा उत्पन्न नहीं करना चाहिए ।।
ऐसा करनेवाले जो लोग हैं, उनके लिए ये उपरोक्त श्लोक भगवान द्वारा दिया हुआ एक चेतावनी है । और मुझे लगता है, की समाज में इस तरह के लोगों के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करनेवाले कुछ लोग हमारे समाज में हुए जिसके परिणाम आज हम अपनी संस्कृति के विनाश की ओर बढ़ते हुए इस कदम के रूप में देख रहे हैं ।।
और मुझे लगता है, कि भगवान के इस चेतावनी को पढ़ने-सुनने के बाद भी जिन्होंने ऐसा दु:ष्कर्म किया है । उन्हें ज्ञानी कहना मुर्खता ही होगा । बल्कि मेरे अनुभव के आधार पर तो उन्हें नरक में होना चाहिए । लेकिन कुछ लोग जो आज उनके समर्थक है, वो आज भी उनके द्वारा प्रसारित घिनौने समुदाय को आज भी बढ़ाने में ही लगे हैं, जिसका परिणाम है, की ऐसे तथाकथित संत वेशधारी कालनेमि राक्षस समाज को गुमराह कर लुटने का काम निर्भय होकर कर रहे हैं ।।
क्योंकि उन्हें पता है, की हमारे सभी दु:ष्कर्मों पर पर्दा डालने के बहुत से तर्क हैं तथाकथित धार्मिकों द्वारा प्रस्तुत तर्कों में । लेकिन उन्हें ये पता नहीं है की परमात्मा सबसे बड़ा है, और वो हर जगह है, और उनके सभी कर्मों को देख रहा है । तथा इस प्रकृति से किये गए खिलवाड़ को वो ऐसे इतनी आसानी से सहन नहीं करेगा ।।
मित्रों, संतों के लक्षण तो हमारे सभी शास्त्रों ने बताया है, और हमने भी बहुत बार इस विषय पर चर्चा की है । फिर भी आज एक बार और आपलोगों के समक्ष भगवत जी का वो प्रसंग जिसमें भगवान ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों को बताया है, उसपर थोडा प्रकास डाल देते है ।।
भगवान ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों, जिसमें भरतजी भी थे, 100 पुत्रों से पूछा – बेटा इस मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? पुत्रों ने जबाब दिया – खाओ-पियो मौज करो और क्या ? लेकिन ऋषभदेव जी ने फटकार लगायी और बताया की यह तन कर फल विषय न भाई । ये तो – साधन धाम मोक्ष करि द्वारा, पाई न जे परलोक सवाँरा । तब उनके पुत्रों ने पूछा – क्या करना चाहिए ? तो ऋषभदेव जी ने कहा -
महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेस्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् ।।
अर्थ:- बेटा ! शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों (वेश्यावृत्ति में लिप्त पुरुषों को) के संग को नरक का द्वार बताया है । तब पुत्रों ने पूछा अब ये भी बता दीजिये पिताजी की संत किसे कहते हैं ? क्या नीति, नियम कानून और मर्यादा का उल्लंघन करनेवाले, देशद्रोहियों की सहायता करनेवाले को संत कहा जा सकता है, जो मात्र संत का वेशभूषा रखता हो, छिपकर सभी मर्यादाओं का उल्लंघन करता हो लेकिन रूप संत का बनाकर लोगों को ठगता हो क्या ऐसों को संत कहा जा सकता है ? ऋषभदेव जी ने बताया कि बेटा सच्चे संतों के लक्षण इस प्रकार के होते हैं -
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ।।२।।
महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परम शान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार से सम्पन्न हों ।।२।।
अब आइये इस विषय को विस्तार से समझने का प्रयास करें-
१.समचित्ता: = जिसका चित्त सभी के लिए समान हो अर्थात् – ना काहू से दोस्ती ना काहू से वैर । यहाँ तो लोग खुलेआम देवताओं को गालियाँ देने वाले को भी संत बना देते हैं और उसकी पूजा करने लगते हैं ।।
२.प्रशान्ता = परम शान्त, अर्थात् जिसके मन में कोई हलचल न हो । कोई जल्दबाजी न हो किसी भी कार्य में ।।
३.विमन्यवः = विगता मन्यु: = अर्थात् जिसने अपने क्रोध को जीत लिया हो, जिसे किसी बात पर क्रोध न आता हो ।।
४.सुह्रदः = भाई मुझे तो ये लगता है, की आपलोग यदि खुश एवं प्रशन्न रहेंगे, तो कभी कहीं आपसे मुलाकात हो जाय तो आप कम से कम हमारा सम्मान तो करेंगे । और कुछ न कुछ देंगे ही लेंगे क्या हमारा ? तो ऐसे में मुझे या मेरे जैसे किसी को भी आपकी बुराई के लिए सोंचकर क्या मिलेगा ? आप खुश रहेंगे तो बहुत कुछ मिलेगा लेकिन आप दु:खी होंगे तो क्या मिलेगा ।।
५.साधू होना चाहिए = उपरोक्त चारो गुण जिसके अन्दर आ जाय मुझे लगता है वही साधू कहलाने के योग्य है । साधू अर्थात् सद आचरण से संपन्न । सदाचारी व्यक्ति को ही साधू कहा जाता है । संत होना मतलब कोई बहुत बड़ा ज्ञान रखना और प्रवचन करना नहीं होता अपितु सदाचारी होना होता है । संत होना मतलब टीवी पर आना, लोगों का भीड़ इकठ्ठा कर लेना नहीं होता है । अपितु जितना अधिक सदाचारी हो वही सच्चा संत होता है ।।
कभी-कभी मुझे लगता है, कि हमारे पूर्वजों ने जो कुलगुरु और कुल पुरोहित की परम्परा बनायीं थी वो बिलकुल सही थी और है । लेकिन बीच के काल में कुछ हमारे ही विद्वानों ने सद्गुरु जैसा एक शब्द ला दिया । और इस चक्कर में हमारे लोग गुमराह हो गए और जिसे वो जानते तक नहीं ऐसे पाखंडियों के चक्कर में पड़कर ठगे गए ।।
भाइयों मेरा तो मानना यही है, कि आप अपने आजू-बाजू रहनेवाले किसी श्रेष्ठ आचरण से संपन्न किसी सदाचारी ब्राह्मण को ही गुरु और पुरोहित बनायें । और अगर जरुरत पड़े तो किसी बड़े कथाकार को अपने यहाँ बुलाकर सत्संग ज्ञानयज्ञ आदि का आयोजन करवाएं ज्ञान लें ।।
लेकिन मुझे नहीं लगता की चाहे वो कोई ही क्यों न हो जिसे आप करीब से नहीं जानते और जो दिखावे में विश्वास रखता हो ऐसे लोगों को गुरु कदापि न बनाये । आपकी निष्ठां जिस दिन जागेगी और भगवान आपको दर्शन देना चाहेगा । उस दिन किसी को भी सद्गुरु बनाकर आपके कल्याण के लिए शुकदेवजी की तरह भेजेगा ।।
हमें शास्त्रानुसार तपस्या और साधना करनी चाहिए दानादि श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करना चाहिए । उसके बाद सूत्र जो बचता है – उसका नाम – इंतजार है ।।
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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।
।। नमों नारायण ।।
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