“आई लव यू” कह देने मात्र से प्रेम सिद्ध नहीं हो जाता ।। - स्वामी जी महाराज.

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“आई लव यू” कह देने मात्र से प्रेम सिद्ध नहीं हो जाता ।।

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जय श्रीमन्नारायण,

जे न तरहीं भवसागर नर समाज अस पाई ।
ते कृत निंदक मन्दमति आत्माहन गति जाई ।।

जो मनुष्य इस प्रकार की भारतीय संस्कृति जैसे समाज को पाकर भी अपनी आत्मा के कल्याण के विषय में विचार नहीं करता वह मुर्ख निंदनीय है, तथा आत्महत्या करनेवालों की दुर्गति को प्राप्त करता है ।।

इसलिए इस परम पवित्र समाज में जन्म लेकर इस जन्म को बेकार नहीं करना और अपने कल्याण के विषय में सोंचना ही बहुत बड़ी बुद्धिमानी है । ये बात केवल शास्त्रगत परिपेक्ष्य में ही नहीं अपितु धरातल पर भी सच्ची है । इसमें कोई संसय नहीं की जहाँ की संस्कृति सुबह जगने के साथ ही विश्व कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत होती है । यथा – उत्तिष्ठोतिष्ठ गोविन्द उतिष्ठ गरुड़ध्वज । उत्तिष्ठ कमलाकान्ता त्रैलोक्यं मंगलं कुरु ।। इस भाव को लेकर जगने की शिक्षा दी जाती हो, वो संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है, इस बात में कोई संसय नहीं ।।

सत्संग के बिना ये संभव नहीं है, हम अक्सर दुविधा में जीते हैं । मुझे लगता है, कि अपनी संस्कृति को न समझने के कारण ही ये दुविधा मन में घर करके बैठी है । लेकिन अगर हमारे मन में जिज्ञासा हो इसे समझने की तो हम अवश्य ही अपनी संस्कृति को भली प्रकार समझ पाएंगे । भगवान कपिल कहते हैं, कि -

सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ।।२६।।

अर्थ:- सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रम का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा ह्रदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं अथवा सुनने को मिलती है । और निरन्तर उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होता है ।।२५।।
मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा जबतक ह्रदय में न जगे, तबतक आपकी श्रद्धा अचल नहीं हो पायेगी । और हमारे धर्म हमारी संस्कृति के प्रति हमारी श्रद्धा जबतक चलायमान रहेगी, किसी के प्रति भी प्रेम का विकास नहीं हो पायेगा । “आई लव यू” कह देने से प्रेम सिद्ध नहीं हो जाता । नारद भक्तिसूत्र में भक्ति के परम आचार्य नारद जी कहते हैं – तत्सुखे सुखित्वं – अर्थात् उसके सुख में सुखी होना तथा उसके दुःख से दु:खी होना ये सच्चे प्रेम का प्रमाण है । मेरे रोने से आये जो तुझको हँसी, तो मैं रो-रोके तुझको हँसाया करूँ । आजकल तो लोग “आई लव यू” बोलकर तथा एक और शब्द है – “सौरी” ये बोलकर कितने भी बड़े गुनाह को क्षमा करने की उम्मीद करते हैं ।।

मित्रों, जहाँ सच्चा प्रेम ही नहीं है, वहां भक्ति की तो बात ही क्या कर सकते हैं । लेकिन ये सबकुछ सम्भव है, परन्तु कहाँ से ? सत्संग से जी हाँ सत्संग से । और ये बात महर्षि कपिल अपनी माता देवहूति को उपदेश करते हुए कहते हैं । सत्पुरुषों के समागम से भगवान क्या है ? कैसा है और वो क्या-क्या कर सकता है ? इस बात का यथार्थ ज्ञान सुनने को मिलता है । फिर ये समझ में आता है, कि यही वो स्थान है, जहाँ से हमें शान्ति अथवा सुरक्षा मिल सकती है ।।

और जब ये निश्चित हो जाय, कि हमारा कल्याण इसके बिना अन्यत्र कही से संभव ही नहीं है तो वहां पे हमारी श्रद्धा रुकती है । और श्रद्धा टिक जाय तो सच्चा प्रेम उत्पन्न होता है । तब जबकि किसी के प्रति सच्चा प्रेम ह्रदय में जगे तो उसी को भक्ति कहते हैं । और ये प्रेमलक्षणा भक्ति ही हमारा कल्याण कर सकती है दूसरा कोई अन्य उपाय नहीं हमारे कल्याण का ।।

मित्रों, यही भक्ति, यही प्रेम हम किसी सच्चे सत्संगी महापुरुष के सान्निध्य को प्राप्त करते हैं, तो हमें सहज ही प्राप्त हो जाती है । फिर चाहे हमारे विचार हमारे आचरण चाहे कैसे भी क्यों न हों । ऐसे महापुरुषों की विशेषताए ये होती हैं, कि वे स्वयं एक सच्चे सत्संगी होते हैं । उनमें कोई गुण अथवा अवगुण भी कितने ही क्यों न हों, उनका सबसे बड़ा गुण उनका सत्संगी होना होता है । और उनका यही आचरण कितने भी बड़े पतितों का कल्याण करवा देता है ।।
इसी बात पर आज एक ऐसा व्याख्यान आपलोगों को सुनाता हूँ, जिससे आपलोग समझ जायेंगे कि सन्त महापुरुषों एवं सत्संग की कितनी महिमा है 
। एक महा कंजूस व्यक्ति था । उसने जीवन में कभी एक पैसा भी किसी को दान नहीं किया था । कोई अगर कहे तो तरह-तरह की दलीलें देता था और दूसरों की श्रद्धा को भी अश्रद्धा में परिवर्तित कर देने में निपुण था । लेकिन कुछ पड़ोसियों के कहने से एक दिन दान करने शनिवार को हनुमान जी के मन्दिर में गया । अब आपको पता तो है ही, कि शनिवार को हनुमान जी के मन्दिर में कितना भीड़ होता है । एक रुपया का एक सिक्का मुट्ठी में दबाये हुए सुबह से लाइन में खड़ा था बेचारा, कि जब नंबर आये तो आज मैं भी दान करूं । और जब उसका नम्बर आया और जैसे ही मुट्ठी खोला दान पेटी में पैसा डालने के लिए, पैसा पसीने से तर-बतर हुआ था । बोला मुझे पता है, कि तूं भी मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहता, इसीलिए तो रो रहा है ।।

और वहीँ से उलटे पाँव घर लौट आया, लोगों ने पूछा – क्या हुआ दान किया ? उसने जबाब दिया – रुपया भी रो रहा था, इसलिए दान नहीं किया । सन्त और सत्संग की महिमा ! एक दिन एक सन्त आये उन्होंने उसके इस व्यवहार को जाना । उन्हें दया आई, सोंचा, हे प्रभु इसका भी कल्याण तो होना ही चाहिए । मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ, बाकी आप संभाल लेना ।।

सबलोग सन्त से गुरुदीक्षा ले रहे थे, सबने कहा तुम भी शिष्य बन जाओ । लेकिन वो अपने स्वभाव के वजह से घबरा रहा था, तब सन्त ने कहा- भईया ! आ जाओ । और उसे मानसिक पूजा का विधान बताया और कहा – कि इसमें कोई खर्च नहीं है, सुबह-शाम आधा-आधा घंटा करना है । वो इस बात के लिए सहर्ष तैयार हो गया और मानसिक पूजा करने लगा । सुबह-शाम आराम से बैठकर भगवान को स्नान करवाता, वस्त्रादि पहनाता, धुप-दीप दिखाता, भोग लगाता ।।
अब एक दिन हुआ यूँ, कि भोग लगाने के लिए दूध का ग्लास भरके तैयार था । दूध में शक्कर डाला, तो शक्कर थोडा ज्यादा शक्कर गिर गया । अब बहुत तर्क-वितर्क मन में करने लगा, बोला अब क्या करें शक्कर तो ज्यादा गिर गया । ये तो बहुत गड़बड़ बात है, एक कि बात थोड़ी न है, रोज-रोज ऐसे इतना – इतना ज्यादा गिरते रहा तब तो हो गया कल्याण । नहीं-नहीं ये तो बहुत ही गलत बात है, हम ऐसा नहीं होने देंगे । तब दुसरे मन ने कहा – कि छोडो ना जाने दो, अब गिर गया तो गिर गया, अब कर भी क्या सकते हैं ? तब उसने कहा – वाह ऐसे कैसे जाने दें, एक दिन की बात थोड़ी न है । तो करोगे क्या ? करेंगे क्यों नहीं ? अभी-अभी तो डाला है, इतना जल्दी घुला थोड़ी न होगा निकाल लेते हैं ।।

और जैसे ही ग्लास में हाथ डाला शक्कर निकालने के लिए ! बालकृष्ण प्रकट हो गए और हाथ पकड़ लिया । भगवान ने कहा – अरे भाई क्या कर रहा है ? उसने कहा ज्यादा शक्कर गिर गया है, उसे ही निकाल रहा हूँ । भगवान ने कहा – पर क्यों ? उसने कहा इतना ज्यादा खर्च करेंगे रोज-रोज तो कहाँ से आएगा ? भगवान ने कहा – कि अरे भाई इसमें तेरा लगा क्या है, ये तो मानस पूजा है न । वो महा कंजूस व्यक्ति अपने सामने भगवान को प्रत्यक्ष देखकर दंग रहा गया और उनके श्री चरणों में गिरकर कहा – प्रभु अब तो अपने चरणों में ले लो ।।

सत्संग की महिमा और सन्त एवं भगवन्त कृपा से उस महा कंजूस स्वभाव वाले व्यक्ति का भी कल्याण हो गया । तो “नेहाभिक्रम नाशोस्ति” – “न इह मार्गेण अभिक्रम अस्ति” तथा “प्रत्यवायो न विद्यते” इस मार्ग में ये करो ऐसे करो इसके बाद ये करना है.... ऐसा कुछ नहीं है तथा किसी प्रकार का कोई दोष नहीं लगता । तो इस मार्ग में तो हम या आप जो कुछ भी करेंगे वो सब फायदा ही फायदा है । बल्कि “स्वल्पमपि धर्मस्य त्रायते महतो भयात् = अर्थात् थोडा सा भी किया गया धर्म का कार्य, कभी-कभी महान भय से रक्षा कर लेता हैं ।।
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हमें शास्त्रानुसार तपस्या और साधना करनी चाहिए दानादि श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करना चाहिए । उसके बाद सूत्र जो बचता है – उसका नाम – इंतजार है ।।

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नारायण सभी का कल्याण करें, सभी सुखी एवं सम्पन्न हों ।।

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

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