श्रीमद्भागवत महापुराण, द्वादशस्कन्ध, दशमोऽध्यायः ।। - स्वामी जी महाराज.

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श्रीमद्भागवत महापुराण, द्वादशस्कन्ध, दशमोऽध्यायः ।।

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मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का वरदान ।।

सूत उवाच:-
स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम् ।।
वैभवं योगमायायास्तमेव शरणं ययौ ।।१।।

अर्थ:- सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियों ! मार्कंडेय मुनि ने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया-वैभवका अनुभव किया । अब यह निश्चय करके कि इस माया से मुक्त होने के लिए मायापति भगवान की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हीं की शरण में स्थित हो गए ।।१।।

मार्कंडेय जी ने मन-ही-मन कहा – प्रभो ! आपकी माया वास्तव में प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञान के समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलों में मोहित हो जाते हैं । आपके श्रीचरण कमल ही शरणागतों को सब प्रकार से अभयदान करते हैं । इसलिए मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की है ।।

सूतजी कहते हैं – मार्कंडेय जी इस प्रकार शरणागति की भावना में तन्मय हो रहे थे । उसी समय भगवान शंकर भगवती पार्वती जी के साथ नन्दीपर सवार होकर आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कन्डेयजी को उसी अवस्था में देखा । उनके साथ बहुत से गण भी थे । जब भगवती पार्वती ने मार्कन्डेय मुनि को ध्यान की अवस्था में देखा, तब उनका ह्रदय वात्सल्य-स्नेह से उमड़ आया । उन्होंने शंकरजी से कहा – भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मण की ओर तो देखिये । जैसे तूफान शान्त हो जानेपर समुद्र की लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती है और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मण का शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है । समस्त सिद्धियों के दाता आपही हैं । इसलिए कृपा करके आप इस ब्राह्मण की तपस्या का प्रत्यक्ष फल दीजिये ।।

भगवान शंकर ने कहा – देवी ! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोक की कोई भी वस्तु नहीं चाहते । और तो क्या, इनके मन में कभी मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं होती । इसका कारण यह है, कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान् के चरण कमलों में इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है । प्रिये ! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं हैं, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं । जीवमात्र के लिए सबसे बड़े लाभ की बात यही है कि सन्त पुरुषों का समागम प्राप्त हो ।।

सूतजी कहते हैं – शौनकजी ! भगवान् शंकर समस्त विद्याओं के प्रवर्तक और सारे प्राणियों के ह्रदय में विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं । जगत के जितने भी सन्त हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं । भगवती पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर मार्कन्डेय मुनि के पास गए । उस समय मार्कन्डेय मुनि की समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भाव में तन्मय थीं । उन्हें अपने शरीर और जगत का बिलकुल पता न था । इसलिए उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने विश्व के आत्मा स्वयं भगवान् गौरी-शंकर पधारे हुए हैं ।।

शौनकजी ! सर्वशक्तिमान भगवान कैलाशपति से यह बात छिपी न रही कि मार्कन्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं । इसलिए जैसे वायु अवकाश के स्थान में अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमाया से मार्कन्डेय मुनि के हृदयाकाश में प्रवेश कर गए । मार्कन्डेय मुनि ने देखा कि उनके ह्रदय में तो भगवान शंकर के दर्शन हो रहे हैं । शंकरजी के सिरपर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएं शोभायमान हो रही है । तीन नेत्र है और दस भुजाएँ । लम्बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी है ।।

शरीर पर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथों में शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिए हैं । मार्कन्डेय मुनि अपने ह्रदय में अकस्मात् भगवान शंकर का यह रूप देखकर विस्मित हो गये । यह क्या है ? कहाँ से आया ? इस प्रकार की वृत्तियों का हो जाने से उन्होंने अपनी समाधी खोल दी । जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकों के एकमात्र गुरु भगवान शंकर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं । उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया ।।

तदनन्तर मार्कन्डेय मुनि ने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धुप और दीप आदि उपचारों से भगवान् शंकर भगवती पार्वती और उनके गणों की पूजा की । इसके पश्चात् मार्कन्डेय मुनि उनसे कहने लगे – सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमा से ही पूर्णकाम हैं । आपकी शान्ति और सुख से ही सारे जगत में सुख-शान्ति का विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्था में मैं आपकी क्या सेवा करूँ ।।

मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरुप को और सत्वगुण से युक्त शान्तस्वरूप को नमस्कार करता हूँ । मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तक स्वरुप एवं तमोगुणयुक्त अघोर स्वरुप को नमस्कार करता हूँ । सूतजी कहते हैं – शौनकजी ! जब मार्कन्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान शंकर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यंत संतुष्ट हुए और बड़े प्रशन्न-चित्त से हँसते हुए कहने लगे ।।

भगवान शंकर ने कहा – मार्कन्डेयजी ! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं – हम तीनों ही वरदाताओं के स्वामी हैं, हमलोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता । हमलोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृततत्व की प्राप्ति कर लेता है । इसलिए तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ।।

ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः ।।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः ।।२०।।

अर्थ:- ब्राह्मण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं । वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिए पुरे ह्रदय से जुट जाते हैं । उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ।।२०।।

सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं । केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं । ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान में, ब्रह्मा में, अपने में और सब जीवों अणुमात्र भी भेद नहीं देखते । सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं । इसलिए हम तुम्हारे-जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं ।।

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः ।।
ते पुनन्त्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः ।।२३।।

अर्थ:- मार्कन्डेय जी ! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं । सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे जैसे सन्त हैं, क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हो ।।२३।।

हमलोग तो ब्राह्मणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधी के द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं । मार्कन्डेय जी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे जैसे महापुरुषों के चरित्र श्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जाएँ, इसमें तो कहना ही क्या है ।।

सूतजी कहते हैं – शौनकादि ऋषियों ! चन्द्रभूषण भगवान् शंकर की एक-एक बात धर्म के गुप्ततम रहस्य से परिपूर्ण थीं । उसके एक-एक अक्षर में अमृत का समुद्र भरा हुआ था । मार्कन्डेय मुनि अपने कानों के द्वारा पूरी तन्मयता के साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई । वे चिरकालतक विष्णुभगवान की माया से भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे । भगवान शिव की कल्याणी वाणी का अमृतपान करने से उनके सारे क्लेश नष्ट हो गए । उन्होंने भगवान शंकर से इस प्रकार कहा ।।

मार्कन्डेय जी ने कहा – सचमुच सर्वशक्तिमान भगवान् की यह लीला सभी प्राणियों की समझ के परे है । भला, देखो तो सही – ये सारे जगत के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवों की वन्दना और स्तुति करते हैं । धर्म के प्रवचनकार प्रायः प्राणियों को धर्म का रहस्य और स्वरुप समझाने के लिए उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई स्वयं धर्म का आचरण करता है तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ।।

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