निति, नियम और व्यक्ति का आचरण ।। Policies, rules and practices - Bhagwat Katha.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन किस सोच में बैठ गये ? अर्जुन ने कहा, आर्यश्रेष्ठ मेरे सामने मेरे अपने ही खड़े है, मैं उन पर कैसे जहर बुझे बाणों को चला सकता हूँ ? यह मुझसे संभंव नही है ।।
भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन जिन्हें तुम अपने समझ रहे हो, वे तुम्हारे नहीं है । यदि तुम्हारे होते तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते और तुम यहां खड़े नही होते । अत: हे अर्जुन यह संसार एक माया है । यहां सब अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेते हैं । और कर्मो के अनुसार ही सुख-दुख को अनुभव करते है ।।
और ये जो सब सामने खडे है, अधर्म की नीति को धारण कर अपने स्वयं के लिए लड़ रहे है । तुम धर्म की नीति को धारण कर मानवता के लिए लड़ रहे हो । तुम्हारा लड़ना श्रेष्ठता के लिए है, इनका लड़ना निकृष्टता के लिए है ।।
अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है, तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आड़े आते हैं । पहला युद्ध उन्हीं से होता है, जब व्यक्ति अपनों से लड़कर सकुशल निकल जाता है, तो उसे धर्म की नीति पर चलने के लिए कोई नहीं रोक सकता ।।
मित्रों, उस समय महाभारत का युद्ध बाहर मैदान में था । आज महाभारत हर मानव के अन्दर चल रहा है । हम हर समय युद्ध करते रहते है, जिसे वैचारिक युद्ध कहा जा सकता है । इस युद्ध का परिणाम भी आता है । हम हर बार थक हार कर बैठ जाते है ।।
हमें अर्जुन की तरह मार्ग दिखाने वाले भगवान भी है, अन्तर इतना है, कि हम उनकी आवाज सुनते ही नहीं । हम यह सोचकर बैठ गए हैं, कि यह मार्ग जो श्रेष्ठता का बताया जाता है, बहुत कठिन है । इसीलिए निकृष्टता का मार्ग हमें सहज और सुगम लगता है ।।
मित्रों, हम अविश्वास के भावों को जल्दी ग्रहण करते है, विश्वास के भावों को नहीं । उसका कारण ये है, कि हमारें चारों ओर का वातावरण ही अविश्वास से भरा मिलता है । जहां नीति पूर्ण कार्य नहीं, अनीति पूर्ण कार्य ज्यादा हो रहे है । साथ ही हम भी उन कार्यो को करने में संलग्न है ।।
हालांकि हमारे अन्दर बैठा भगवान हमें हर समय सचेत करता रहता है, कि नीति पूर्ण कार्य एवं धर्म आधारित कर्त्तव्य करें । यही श्रेष्ठता की ओर ले जाते है । लेकिन हम इसे अनदेखा करते रहते हैं । लेकिन ये हमें सदैव याद रखना चाहिए, कि धर्म की जड़ हमेशा हरी होती है ।।
यह जानकर भी हम इस ओर कदम नहीं उठाते । यदि किसी के कहने सुनने से उठकर चल भी पड़ते है, तो ज्यादा नहीं चल पाते, थककर बैठ जाते है ! और पुनः उसी वातावरण में लौटने लगते है ।।
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ।।5।।
राजा परीक्षित ने राजवेषधारी कलियुग से कहा:- रे तू नट की भाँति वेश तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शुद्र (उद्दण्ड) जान पड़ता है ।।5।।
लगभग हम भी कुछ ऐसे ही हैं, हमारी बातें, कलियुग के वेष-भूषा, (हमारी बातें - आत्मा-परमात्मा, ज्ञान-मुक्ति जैसी) कि तरह महान संतों जैसा है, लेकिन कर्म (आचरण) में वो धर्म ना के बराबर है, अथवा है ही नहीं ।।
हमें अपने आप को बदलना होगा, अन्यथा भ्रष्टाचार उन्मूलन का स्वप्न, स्वप्न ही रह जायेगा । तथा इस तरह कि बातें धर्मं का प्रचार और समाज में बदलाव लाने के बजाय, धर्मं का ह्रास ही करेंगी ।।
।। नमों नारायण ।।
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन किस सोच में बैठ गये ? अर्जुन ने कहा, आर्यश्रेष्ठ मेरे सामने मेरे अपने ही खड़े है, मैं उन पर कैसे जहर बुझे बाणों को चला सकता हूँ ? यह मुझसे संभंव नही है ।।
भगवान कृष्ण ने कहा:- अर्जुन जिन्हें तुम अपने समझ रहे हो, वे तुम्हारे नहीं है । यदि तुम्हारे होते तो इस प्रकार का व्यवहार नहीं करते और तुम यहां खड़े नही होते । अत: हे अर्जुन यह संसार एक माया है । यहां सब अपने कर्मों के अनुसार ही जन्म लेते हैं । और कर्मो के अनुसार ही सुख-दुख को अनुभव करते है ।।
और ये जो सब सामने खडे है, अधर्म की नीति को धारण कर अपने स्वयं के लिए लड़ रहे है । तुम धर्म की नीति को धारण कर मानवता के लिए लड़ रहे हो । तुम्हारा लड़ना श्रेष्ठता के लिए है, इनका लड़ना निकृष्टता के लिए है ।।
अर्जुन जब लड़ाई श्रेष्ठता के लिए होती है, तो उसमें सबसे पहले अपने प्रिय ही आड़े आते हैं । पहला युद्ध उन्हीं से होता है, जब व्यक्ति अपनों से लड़कर सकुशल निकल जाता है, तो उसे धर्म की नीति पर चलने के लिए कोई नहीं रोक सकता ।।
मित्रों, उस समय महाभारत का युद्ध बाहर मैदान में था । आज महाभारत हर मानव के अन्दर चल रहा है । हम हर समय युद्ध करते रहते है, जिसे वैचारिक युद्ध कहा जा सकता है । इस युद्ध का परिणाम भी आता है । हम हर बार थक हार कर बैठ जाते है ।।
हमें अर्जुन की तरह मार्ग दिखाने वाले भगवान भी है, अन्तर इतना है, कि हम उनकी आवाज सुनते ही नहीं । हम यह सोचकर बैठ गए हैं, कि यह मार्ग जो श्रेष्ठता का बताया जाता है, बहुत कठिन है । इसीलिए निकृष्टता का मार्ग हमें सहज और सुगम लगता है ।।
मित्रों, हम अविश्वास के भावों को जल्दी ग्रहण करते है, विश्वास के भावों को नहीं । उसका कारण ये है, कि हमारें चारों ओर का वातावरण ही अविश्वास से भरा मिलता है । जहां नीति पूर्ण कार्य नहीं, अनीति पूर्ण कार्य ज्यादा हो रहे है । साथ ही हम भी उन कार्यो को करने में संलग्न है ।।
हालांकि हमारे अन्दर बैठा भगवान हमें हर समय सचेत करता रहता है, कि नीति पूर्ण कार्य एवं धर्म आधारित कर्त्तव्य करें । यही श्रेष्ठता की ओर ले जाते है । लेकिन हम इसे अनदेखा करते रहते हैं । लेकिन ये हमें सदैव याद रखना चाहिए, कि धर्म की जड़ हमेशा हरी होती है ।।
यह जानकर भी हम इस ओर कदम नहीं उठाते । यदि किसी के कहने सुनने से उठकर चल भी पड़ते है, तो ज्यादा नहीं चल पाते, थककर बैठ जाते है ! और पुनः उसी वातावरण में लौटने लगते है ।।
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ।।5।।
राजा परीक्षित ने राजवेषधारी कलियुग से कहा:- रे तू नट की भाँति वेश तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शुद्र (उद्दण्ड) जान पड़ता है ।।5।।
लगभग हम भी कुछ ऐसे ही हैं, हमारी बातें, कलियुग के वेष-भूषा, (हमारी बातें - आत्मा-परमात्मा, ज्ञान-मुक्ति जैसी) कि तरह महान संतों जैसा है, लेकिन कर्म (आचरण) में वो धर्म ना के बराबर है, अथवा है ही नहीं ।।
हमें अपने आप को बदलना होगा, अन्यथा भ्रष्टाचार उन्मूलन का स्वप्न, स्वप्न ही रह जायेगा । तथा इस तरह कि बातें धर्मं का प्रचार और समाज में बदलाव लाने के बजाय, धर्मं का ह्रास ही करेंगी ।।
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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।। नमों नारायण ।।
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