जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, मैं जहाँ भी जाऊं कोई न कोई इस प्रकार का सवाल कर ही देता है । आखिर इतने वर्षों से जो हमारे लोगों को बहकाने का ही तो काम किया गया है हमारे देश में ।।
हमारे देश का इतिहास तो कभी हमें पढ़ाया ही नहीं गया । हम जो कुछ भी जानते हैं अपने पूर्वजों के मुँह से कहानियाँ सुनकर जानते हैं ।।
वरना यहाँ तो यही पढाया जाता रहा है, कि भगत सिंह आतंकवादी थे । यहाँ दुष्टाधिराज बाबर को और अत्यन्त क्रूर एवं दुष्ट शाशक अकबर को महान बताया जाता रहा है ।।
मूर्ति पूजा की सदैव इस देश में बुराइयाँ ही की गयी । कुछ हमारे अपने लोगों को जो विद्वान् हुए उन्हें खरीद लिया गया और अपने अनुसार हमारे धर्म की व्याख्यायें करवायी गयी ।।
इस संसार का हर एक वस्तु, प्राणी, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मजार, पेड़ पौधे, दिशा, चाँद, तारे, ग्रह, पुस्तक, अर्थात पंच भौतिक तत्वों से बनी किसी भी चीज पर श्रद्धा स्थापित करना ही मूर्ति पूंजा कहलाता है ।।
मित्रों, विश्व का कोई भी धर्म मूर्ति पूजा से बाहर नहीं है । किसी न किसी रूप में सभी मूर्तिं पूंजा ही कर ही रहे हैं । मूर्ति पूंजा धर्म की प्राईमरी पाठशाला है ।।
हमारे देश के इन अवतारी महानुभावों को तो आप जानते ही होंगे । बुद्ध, तुलसी, कबीर आदि से लेकर हमारे परम गुरुदेव त्रिदंडी स्वामी जी महाराज तक अनेक ऐसे महापुरुष है ।।
जिनमें से कुछ ने इस बात का विरोध किया तो कुछ ने समर्थन । कुछ ने भगवान का दर्शन स्वयं भी किया और दूसरों को भी करवाया और अंत में परमात्मा को प्राप्त किया ।।
मित्रों, इनमें से जिन्होंने सबसे ज्यादा दमदार तरीके से विरोध किया मूर्ति पूजा का (भगवान बुद्ध) उनकी मूर्ति विश्व में सबसे बड़ी है बोधगया में ।।
एक और महानुभाव हुए जिनका नाम आप भी जानते होंगे स्वामी दयानन्द सरस्वती । इन्होने तो मूर्ति पूजा का खण्डन किया ही, इनके आज के समर्थक भी अभी भी कर रहे हैं ।।
परन्तु उनके करने में और आज के उनके समर्थकों के करने में बहुत बड़ा अन्तर है । उन्होंने स्वयं किसी को नहीं माना तो नहीं माना, परन्तु आज उनको कुछ कह दो तो उनके समर्थक आपको मार डालेंगे ।।
ऐसा क्यों ? स्वाभाविक है आपके मन में इस प्रश्न का उठना और उठना भी चाहिए । क्योंकि यही तो है मूर्तिपूजा जो स्वयं लोग करते हैं और दूसरों को उपदेश करने चले आते हैं ।।
आचरण और वाणी दोनों जब एक हो जाय तभी कोई दयानन्द सरस्वती बन सकता है । केवल बोझ की तरह किसी के सिद्धान्तों को सर पे उठाये घुमने से लोगों का भला नहीं होता ।।
।। नारायण सभी का कल्याण करें ।।
www.sansthanam.com
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।। नमों नारायण ।।
मित्रों, मैं जहाँ भी जाऊं कोई न कोई इस प्रकार का सवाल कर ही देता है । आखिर इतने वर्षों से जो हमारे लोगों को बहकाने का ही तो काम किया गया है हमारे देश में ।।
हमारे देश का इतिहास तो कभी हमें पढ़ाया ही नहीं गया । हम जो कुछ भी जानते हैं अपने पूर्वजों के मुँह से कहानियाँ सुनकर जानते हैं ।।
वरना यहाँ तो यही पढाया जाता रहा है, कि भगत सिंह आतंकवादी थे । यहाँ दुष्टाधिराज बाबर को और अत्यन्त क्रूर एवं दुष्ट शाशक अकबर को महान बताया जाता रहा है ।।
मूर्ति पूजा की सदैव इस देश में बुराइयाँ ही की गयी । कुछ हमारे अपने लोगों को जो विद्वान् हुए उन्हें खरीद लिया गया और अपने अनुसार हमारे धर्म की व्याख्यायें करवायी गयी ।।
इस संसार का हर एक वस्तु, प्राणी, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मजार, पेड़ पौधे, दिशा, चाँद, तारे, ग्रह, पुस्तक, अर्थात पंच भौतिक तत्वों से बनी किसी भी चीज पर श्रद्धा स्थापित करना ही मूर्ति पूंजा कहलाता है ।।
मित्रों, विश्व का कोई भी धर्म मूर्ति पूजा से बाहर नहीं है । किसी न किसी रूप में सभी मूर्तिं पूंजा ही कर ही रहे हैं । मूर्ति पूंजा धर्म की प्राईमरी पाठशाला है ।।
हमारे देश के इन अवतारी महानुभावों को तो आप जानते ही होंगे । बुद्ध, तुलसी, कबीर आदि से लेकर हमारे परम गुरुदेव त्रिदंडी स्वामी जी महाराज तक अनेक ऐसे महापुरुष है ।।
जिनमें से कुछ ने इस बात का विरोध किया तो कुछ ने समर्थन । कुछ ने भगवान का दर्शन स्वयं भी किया और दूसरों को भी करवाया और अंत में परमात्मा को प्राप्त किया ।।
मित्रों, इनमें से जिन्होंने सबसे ज्यादा दमदार तरीके से विरोध किया मूर्ति पूजा का (भगवान बुद्ध) उनकी मूर्ति विश्व में सबसे बड़ी है बोधगया में ।।
एक और महानुभाव हुए जिनका नाम आप भी जानते होंगे स्वामी दयानन्द सरस्वती । इन्होने तो मूर्ति पूजा का खण्डन किया ही, इनके आज के समर्थक भी अभी भी कर रहे हैं ।।
परन्तु उनके करने में और आज के उनके समर्थकों के करने में बहुत बड़ा अन्तर है । उन्होंने स्वयं किसी को नहीं माना तो नहीं माना, परन्तु आज उनको कुछ कह दो तो उनके समर्थक आपको मार डालेंगे ।।
ऐसा क्यों ? स्वाभाविक है आपके मन में इस प्रश्न का उठना और उठना भी चाहिए । क्योंकि यही तो है मूर्तिपूजा जो स्वयं लोग करते हैं और दूसरों को उपदेश करने चले आते हैं ।।
आचरण और वाणी दोनों जब एक हो जाय तभी कोई दयानन्द सरस्वती बन सकता है । केवल बोझ की तरह किसी के सिद्धान्तों को सर पे उठाये घुमने से लोगों का भला नहीं होता ।।
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