जय श्रीमन्नारायण,
प्रश्न:- धर्म क्या है ?
उत्तर:- शास्त्रानुसार - अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम ।।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं ।।परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।।
प्रश्न:- परहित क्या है ?
उत्तर:- दूसरों के भले का सोंचना या करना ही, परहित है ! दूसरा अर्थात जिनसे दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न हो ! अथवा यूँ कहें, कि सभी के भले का सोंचना या करना ही परहित है !!
धर्म - धर्म कि परिभाषा तो लगभग यही है ! लेकिन आज जो धर्म का स्वरूप हमारे सम्मुख है ! चाहे वो कोई भी धर्म क्यों न हो, उसमें अब हमें देखना ये है, कि इस व्यवस्था में कितनी मात्रा में परोपकार कि भावना है !!
और साथ में दूसरी बात यह भी है, कि परोपकार भी दो तरह के होते हैं ! एक तो प्रत्यक्ष रूप में, जैसे किसी असहाय, मजबूर, दुखी अथवा बीमार या प्राकृतिक रूप से विकलांग जीव कि सेवा ।।
और दूसरा सबके मूल, प्रकृति कि सेवा ! अर्थात प्रकृति जिन जीवों को पैदा करती है, उस प्रकृति का पोषण, ताकि वहां से ही कोई विकलांग या मजबूर, असहाय, दीन, दुखी अथवा दरिद्र पैदा ही न हो ! इसमें दूसरा सर्वश्रेष्ठ है !!
अब देखना ये है, कि जितने भी धर्म हैं, अथवा धार्मिक संस्थाएं हैं ! इनमें से कितने लोग प्रकृति के संरक्षण अथवा पोषण के लिए क्या करते है ।।
और अगर नहीं करते, तो उन्हें अपनी संस्था को धर्म कहने या अपने आर्गनाइजेसन के नाम के साथ धर्म शब्द लिखने का कोई अधिकार नहीं है !!
क्योंकि जो गरीब, मजबूर, लाचार, असहाय या विकलांग सेवा के लिए, स्वात्मा कि पुकार से, अपने धन से पर्सनल रूप से किया जाने वाला धर्म है, उसके लिए किसी भी तरह कि आर्गनाइजेसन या संस्था बनाने कि कोई आवश्यकता नहीं है ।।
और अगर ऐसी स्थिति में कोई संस्था बनाता है, तो वो पूर्ण रूप से व्यवसाय करता है ! अब इसमें भी सब तो नहीं, लेकिन कुछ संत प्रवृति के लोग भी सम्मिलित हैं ।।
जो नि:स्वार्थ भाव से भी ऐसा करते हैं ! लेकिन अधिकांशतः व्यवसाय के उद्देश्य से ही ऐसे धार्मिक पहलू को चुनते हैं ! क्योंकि इसमें धर्म कम और धर्म का दिखावा ज्यादा है ।।
।। जय जय श्री राधे ।।
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।। नमों नारायण ।।
प्रश्न:- धर्म क्या है ?
उत्तर:- शास्त्रानुसार - अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम ।।
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं ।।परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।।
प्रश्न:- परहित क्या है ?
उत्तर:- दूसरों के भले का सोंचना या करना ही, परहित है ! दूसरा अर्थात जिनसे दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न हो ! अथवा यूँ कहें, कि सभी के भले का सोंचना या करना ही परहित है !!
धर्म - धर्म कि परिभाषा तो लगभग यही है ! लेकिन आज जो धर्म का स्वरूप हमारे सम्मुख है ! चाहे वो कोई भी धर्म क्यों न हो, उसमें अब हमें देखना ये है, कि इस व्यवस्था में कितनी मात्रा में परोपकार कि भावना है !!
और साथ में दूसरी बात यह भी है, कि परोपकार भी दो तरह के होते हैं ! एक तो प्रत्यक्ष रूप में, जैसे किसी असहाय, मजबूर, दुखी अथवा बीमार या प्राकृतिक रूप से विकलांग जीव कि सेवा ।।
और दूसरा सबके मूल, प्रकृति कि सेवा ! अर्थात प्रकृति जिन जीवों को पैदा करती है, उस प्रकृति का पोषण, ताकि वहां से ही कोई विकलांग या मजबूर, असहाय, दीन, दुखी अथवा दरिद्र पैदा ही न हो ! इसमें दूसरा सर्वश्रेष्ठ है !!
अब देखना ये है, कि जितने भी धर्म हैं, अथवा धार्मिक संस्थाएं हैं ! इनमें से कितने लोग प्रकृति के संरक्षण अथवा पोषण के लिए क्या करते है ।।
और अगर नहीं करते, तो उन्हें अपनी संस्था को धर्म कहने या अपने आर्गनाइजेसन के नाम के साथ धर्म शब्द लिखने का कोई अधिकार नहीं है !!
क्योंकि जो गरीब, मजबूर, लाचार, असहाय या विकलांग सेवा के लिए, स्वात्मा कि पुकार से, अपने धन से पर्सनल रूप से किया जाने वाला धर्म है, उसके लिए किसी भी तरह कि आर्गनाइजेसन या संस्था बनाने कि कोई आवश्यकता नहीं है ।।
और अगर ऐसी स्थिति में कोई संस्था बनाता है, तो वो पूर्ण रूप से व्यवसाय करता है ! अब इसमें भी सब तो नहीं, लेकिन कुछ संत प्रवृति के लोग भी सम्मिलित हैं ।।
जो नि:स्वार्थ भाव से भी ऐसा करते हैं ! लेकिन अधिकांशतः व्यवसाय के उद्देश्य से ही ऐसे धार्मिक पहलू को चुनते हैं ! क्योंकि इसमें धर्म कम और धर्म का दिखावा ज्यादा है ।।
।। जय जय श्री राधे ।।
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।। नमों नारायण ।।
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