असली सन्तत्व - BHAGWAT KATHA - SWAMI DHANANJAY MAHARAJ. - स्वामी जी महाराज.

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असली सन्तत्व - BHAGWAT KATHA - SWAMI DHANANJAY MAHARAJ.

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जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, भागवत जी के प्रथम स्कन्ध के आरम्भ में - जन्माद्यस्य इति श्लोकों से स्तुति करने के उपरांत व्यासजी लिखते हैं ।। 
BHAGWAT KATHA - SWAMI DHANANJAY MAHARAJ.

एक बार नैमिषारण्य में सभी ऋषिजन एकत्रित हुए दिन में विश्वकल्याणार्थ यज्ञ होता और सायंकालीन बेला में ज्ञानयज्ञ होता ।।

एक दिन की बात है, कि वहां एक नौजवान संतरुपधारी कोई व्यक्ति आया जो ब्राह्मण नहीं था । जो बहुत बड़ा विद्वान् भी नहीं था । जिसके कुल-गोत्र का कुछ पता नहीं था ।।

लेकिन उसके चेहरे से एक आभा छिटक रही थी । देखते ही उसे बड़े-बड़े कुल-गोत्र वाले ऋषिजन साष्टांग करने लगे । उन्होंने भी सभीका अभिनन्दन किया । सबने उन्हें फूलमाला आदि पहनाया और व्यसगाद्दी पर बिठा दिया ।।

और फिर सभी ऋषियों में अग्रगण्य शौनक जी ने पूछा - प्रभु हमने कथाएं तो आजतक बहुत ही सुनी और कही लेकिन आज कथाओं का सार सुनना चाहते हैं । उन्होंने कहा - महाराज आपलोग इतने श्रेष्ठजन हैं और मेरे जैसे का सम्मान उपहास जैसा लग रहा है ।।

शौनक जी ने कहा -

यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः ।।
सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया ।।१५।।

अर्थ:- महाराज ! हमने सुना है, कि जो लोग भगवान् के श्रीचरणों की सेवा में ही रहते हैं, उनके स्पर्शमात्र से ही संसार के जीव तत्क्षण पवित्र हो जाते हैं । जबकि गंगाजी के जल का भी अगर बहुत दिनों तक लगातार सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है ।।

तो फिर अगर हमने आपका सम्मान किया तो इसमें कैसा उपहास ? हम तो समझते हैं की अगर आपश्री के श्रीमुख से कुछ ज्ञान मिले तो हम धन्य हो जायेंगे ।।

वो सूतजी थे जो न ब्राह्मण थे और न ही बशिष्ठ ऋषि जैसे वेदमन्त्रों के द्रष्टा ही थे । लेकिन ऋषियों के इस बात को सुनकर सूतजी ने कहा - की ये बात पूर्णतया सत्य है और इसीलिए जब भी मैं कहीं कुछ बोलूं इससे पहले गुरु न होने पर भी आदरणीय श्री शुकदेवजी का वंदन अवश्य करता हूँ ।।

और उन्होंने शुकदेवजी का वंदन किया इस मन्त्र से -

यं प्रव्रजन्त मनुपेतमपेतकृत्यं - द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु - स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।

अर्थ:- जिस समय श्री शुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मों के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था (अर्थात् = जन्म लेते ही) तभी उन्हें अकेले ही सन्यास लेने के लिए घर से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे - बेटा ! बेटा ! तुम कहाँ जा रहे हो ? उस समय वृक्षों ने तन्मय होने के कारण शुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था । ऐसे सर्वभूत-ह्रदयस्वरूप श्री शुकदेवमुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ।।२।।

ऋषियों ने पूछा - ऐसा क्यों भगवन् ? सूतजी ने कहा - व्यासजी मेरे गुरु हैं और शुकदेवजी उनके पुत्र हैं इसलिए नहीं । बल्कि इसलिए कि शुकदेवजी स्वयं में एक अद्वितीय भगवत्प्रेमी हैं ।।

तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ्निर्विकल्पकः ।।
एकान्तमतिरुन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ।।(अ.४,श्लोक - ४.)

अर्थ:- उनके पुत्र श्री शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभाव रहित, संसारनिद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थिर रहते हैं । वे संसार से छिपे रहने के कारण मूढ़ से प्रतीत होते हैं ।।४।।

जन्म लेते ही जब वे घर से जा रहे थे और व्यास जी पीछे-पीछे पुकारते हुए जा रहे थे । तब एक आश्चर्यजनक घटना घटी । कुछ देवांगनाएँ सरोवर में नग्न स्नान कर रही थी । और वहां से जब श्री शुकदेव जी निकले तो उन्होंने उन्हें देखा लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा और स्नान करती ही रहीं ।।

लेकिन वहां जैसे ही व्यास जी पहुंचे । उन्हें देखते ही सभी युवतियों ने अपने-अपने वस्त्र धारण करके हाथ जोड़कर क्षमायाचना की मुद्रा में घुटनों के बल बैठ गयी । व्यासजी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा - बेटा अभी यहाँ से मेरा नौजवान सुन्दर बेटा निकला उसे देखकर तुमलोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा । फिर मैं बुढा तुम्हारे दादा के उम्र का हूँ फिर ऐसा क्यों ?

युवतियों ने क्या बात कही -

दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं -
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति -
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ।।५।।

अर्थ:- व्यासजी जब सन्यास के लिए वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करनेवाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेवजी को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से अपने कपड़े पहन लिए थे । इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी भी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में ऐसा कोई भेद नहीं है ।। (अर्थात् = वो जानता ही नहीं की स्त्री क्या होती है और पुरुष क्या होता है ? उसको तो सभी में केवल अपना आराध्य परमात्मा ही नजर आता है ।।)

स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।।
अवेक्षते महाभागस्तीर्थीकुर्वंस्तदाश्रमम् ।।८।।

अर्थ:- महाभाग श्री शुकदेवजी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थरूप बना देने के लिए उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रुकते हैं भिक्षाटन के लिए जीतनी देर में एक गाय दुही जाती है (अर्थात् = मात्र 6 मिनट।।) ।।

अर्थात महर्षि शौनक और महाभाग श्री सूतजी की वार्ता का निष्कर्ष यही है की हम गृहस्थों को विद्वानों, संतों एवं भगवान के भक्तों का पूर्णतया तन, मन और धन से पूरी तरह सेवा करना चाहिए ।।

जात न पूछो साधू की पूछ लीजै कछु ज्ञान ।।

भगवान लक्ष्मीनारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।

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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

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