होठों में होंठ डालकर कीस करना कितना उचित है ? Shrimad Bhagwat Katha. - स्वामी जी महाराज.

Post Top Ad

होठों में होंठ डालकर कीस करना कितना उचित है ? Shrimad Bhagwat Katha.

Share This
जय श्रीमन्नारायण,

मित्रों, आइये आज फिर से एक बार आप सभी को भागवत जी की कथा की ओर लेकर चलते हैं । आज भागवत जी के तीसरे स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय की ओर प्रस्थान करते हैं, जहाँ से कर्दम+देवहुति के विवाह की प्रक्रिया शुरू होती है तथा सांख्य योग प्रणेता भगवान श्री कपिल मुनि के अवतार की कथा निकलती है ।।

कर्दम जी का जन्म ब्रह्माजी के छाया से हुआ था । जन्म लेने के बाद उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा - पिताजी मेरे लिए क्या आदेश है ? ब्रह्माजी ने कहा की तुम तपस्या करो । ब्रह्माजी का आदेश सर आँखों पर रखकर कर्दम जी तपस्या करने लगे । और बहुत दिनों तक तपस्यारत रहने के कारण उनका शरीर कृष हो गया । भगवान ने प्रशन्न होकर पूछा क्या चाहिए ? कर्दम जी ने कहा - प्रभु आपके श्रीचरणों की भक्ति के अलावा मुझे और क्या चाहिए ।।

भगवान ने कहा वो तो है ही, लेकिन मैं तुम्हें ये आदेश देता हूँ की तुम विवाह कर लो । क्योंकि भगवान भी चाहते हैं, की ऋषियों का जीवन गृहस्थमय हो । क्योंकि ऐसे लोगों की संतानें भी समाज को सही मार्ग दिखा सकती है । कर्दम जी ने कहा - विवाह तो मैं कर लूँगा, लेकिन मेरी एक शर्त है । भगवान ने कहा - बोलो । कर्दम जी ने कहा - आपको मेरे घर मेरा पुत्र बनकर आना पड़ेगा ।।

भगवान ने कहा - ठीक है मैं आऊंगा तुम्हारा पुत्र बनकर । अभी मनु जी अपनी पुत्री देवहुति को लेकर तुम्हारे पास आ रहे हैं तुम उन्हें इनकार मत करना विवाह कर लेना । अब तो कर्दम जी अपनी कुटिया में बैठे हुए स्वायम्भुव मनु जी के आने का इंतजार करने लगे । कहीं कुछ हिरणों के चलने से पत्ता भी हिले तो कर्दम जी की बेचैनियाँ बढ़ जाएँ लगे आ गए क्या ? ये गृहस्थ जीवन और माया का जाल ऐसा ही है । जबतक आप इनसे बंचो तो ठीक है, लेकिन मन की भावनाएँ जहाँ भड़की की फिर तो माया पूर्णतः हावी हो जाती है ।।

कर्दम जी ने मनु और देवहुति के सामने भी एक प्रस्ताव रखा, की एक पुत्र होते ही मैं सन्यास ले लूँगा । लेकिन देवहुति ने भी इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया । और दोनों का विवाह हो गया । लेकिन आज की तरह उन्होंने शिमला और गोवा का रुख नहीं किया हनीमून के लिए । क्योंकि विवाह तो एक पवित्र बंधन है ।।

आज न्यूज चैनल पर एक अजीब बात सुना बड़ा आश्चर्य हुआ । वो महिला कोई थी, कह रही थी की होठों में होंठों को डालकर किस कोई भी किसी के साथ साथ कर सकता है । उस वकील की तर्क हमें अच्छी लगी । लेकिन मैं उस मैडम जी को कहना चाहता हूँ, की मैडम जी, जब भी कोई किस करेगा तो केवल किस नहीं करेगा । किस करने वाले की भावनाएँ जगेंगीं और उसके हाथ इधर-उधर जायेंगे ही । और इतना ही नहीं, उनकी सभी इन्द्रियों में फडफडाहट होने लगेंगी - फिर उसको कैसे रोकेंगीं आप ।।

जबतक हमारी संस्कृति हमारे देश में जीवित रहेंगीं तबतक तो शायद ऐसा नहीं हो सकता । ऐसा करने के लिए आपको हमारी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट करना होगा और शायद ये संभव नहीं है । महात्मा बुद्ध, दयानन्द सरस्वती और मुस्लिम आक्रान्ताओं को झेला है इस देश ने । लेकिन अपनी संस्कृति को अकबर की इतनी यातना झेलने के बाद भी जीवित रखा । अकबर बादशाह सुबह का भोजन एक क्विंटल जनेऊ (ब्राह्मणों के रक्त से रक्तरंजित जनेऊ) को अपने सामने देख लेता था तभी करता था । इतने के बाद भी जब हमारे पूर्वजों ने अपनी संस्कृति को जीवित रखा तो आप सोंच सकती है ।।

कर्दम जी विवाह होने के उपरान्त भी तपस्या में लीन हो गए । और माता देवहुति उनकी सेवा में तत्पर हो गयीं । बहुत दिनों के बाद जब समाधी खुली तो कर्दम जी ने पूछा देवी आप कौन हैं ? माता जी ने याद दिलाई की हमारा आपके साथ विवाह हुआ है, आप हमारे पतिदेव हैं । कर्दम जी को सब याद आ गया और प्रशन्न होकर कर्दम जी ने कहा - आपको क्या चाहिए आप नि:संकोच भाव से मांगिये । माता जी ने कहा की एक विवाहिता को पति सुख के अलावा और क्या चाहिए ।।

कर्दम उवाच:-

तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदायाः , शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या ।।
यो देहिनामयमतीव सुहृत्स देहो, नावेक्षितः समुचितः क्षपितुं मदर्थे ।।

अर्थ:- कर्दमजी ने कहा – मनुनन्दिनी ! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है । मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत ही संतुष्ट हूँ । सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की कोई परवाह नहीं की ।।

फिर क्या था कर्दम जी ने अपनी तपस्या से - मैत्रेय उवाच:-

प्रियायाः प्रियमन्विच्छन्कर्दमो योगमास्थितः ।।
विमानं कामगं क्षत्तस्तर्ह्येवाविरचीकरत् ।।

माता देवहुति की मनोकामना को पूर्ण करने हेतु योग में स्थित होकर कर्दम जी ने एक विमान का निर्माण किया । जिसका नाम था कामग = अर्थात् अपनी कामना के अनुसार गमन करने वाला । वो विमान हर तरह के ऐश्वर्यों, सुख-सुविधाओं से पूर्ण था । पुरे तीसरे स्कन्ध के तेइसवें अध्याय में आदरणीय कर्दम जी के द्वारा रचित विमान के सौन्दर्य का ही वर्णन है । संतजन कहते हैं, की ये तो तपस्या का एक नमूना मात्र है, एक तपस्वी व्यक्ति चाहे तो कभी भी किसी के भी जीवन की दशा और दिशा बदल सकता है । लेकिन कर्दम की इसी रासलीला में बहुत वर्ष निकल गए और इसी बीच नवधा भक्ति स्वरुपा नव कन्याओं का जन्म हुआ । जिनका नाम हमारे इतिहास में आज भी अमर है ।।

कर्दम जी की बड़ी पुत्री कला - जिनका विवाह मरीचि ऋषि से हुआ । अनसूया अत्री ऋषि को व्याही गयीं जिनके पुत्र त्रिदेवों के अंशस्वरूप भगवान दत्तात्रेय हुए । और जिन्होंने त्रिदेवों को नन्हें बालक बना दिया था अपने सतीत्व के बल से । श्रद्धा अंगिरा ऋषि को, हविर्भू: पुलस्त्य ऋषि को तो गति का विवाह पुलह ऋषि के साथ हुआ । क्रिया का विवाह क्रतु ऋषि के साथ तो ख्याति का विवाह भृगु ऋषि के साथ संपन्न हुआ । बशिष्ठ ऋषि के साथ माता अरुन्धती का विवाह संपन्न हुआ तो शान्ति नाम की सबसे छोटी कन्या का विवाह अथर्वा ऋषि के साथ हुआ ।।

ये सभी कन्यायें इतनी सती थीं, की इनके तपस्या के बदौलत इन ऋषियों का नाम आज भी अमर है । पुत्र के वजह से तो माता-पिता का सर झुक भी जाता है, लेकिन पुत्री तो अमरत्व देने वाली होती है । आज का समाज जिन कन्याओं को सुसंस्कारों के जगह उनकी आजादी के नाम पर गलत मार्ग दिखा रहा है, इससे हम सभी को बचाना चाहिए । चाहे कितना भी कठोर पिता हो, अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु पर भी जिस पिता के आँखों में आंसुओं की बूंद दिखाई न पड़ती हो । वैसा बाप भी अपनी पुत्री का कन्यादान करके जब डोली में बिठाता है, तो अपने-आप को रोक नहीं पाता । बरबस आँखों से आसुओं की बूंदें टपक हो जाती है ।।

फिर तो कर्दम जी ने कहा - देवी बहुत हो गया अब मुझे लगता है, की मुझे सन्यास की ओर प्रस्थान करना चाहिए । लेकिन माता देवहुति ने कहा - की भगवन् मैं आपको रोकूंगी नहीं, लेकिन आपने कहा था, की पुत्र होने पर सन्यास लूँगा और पुत्र तो हुआ नहीं । कर्दम जी को भगवान के अपने गोद में आने की बात याद आ गयी और उस समय कर्दम जी ने सन्यास का विचार त्यागकर वहीँ रहने का निर्णय किया । और बहुत ही जल्द भगवान कपिल का प्रादुर्भाव हुआ । और कर्दम जी सन्यास की ओर प्रस्थान कर गए ।।

भगवान कपिल का जन्म हुआ तब उनके चेहरे के तेज को ही देखकर कर्दम जी समझ गए की भगवान हमारे घर पधारे हैं, और एकांत में जाकर उनकी स्तुति करी । भगवान से कर्दम जी ने आदेश माँगा की मुझे अब इस गृहस्थी से मुक्ति दें प्रभु । भगवान ने भी कहा - मुनिवर ! हमारा जन्म ही इसी लिए हुआ है, की मैं सांख्य को लोगों तक पहुंचा सकूं । और अगर आप स्वयं ही इसी ओर प्रस्थान कर रहे हैं, तो फिर मैं आपको आगे क्या कहूँ । और भगवान कपिल की स्तुति करते हुए कर्दम जी वन को प्रस्थान कर गए ।।

माता देवहुति ने बड़े ही आदर के साथ लालन-पालन किया भगवान कपिल का । क्योंकि उन्हें भी ये ज्ञात था, की हमारी गोद से स्वयं भगवान प्रकट हुए हैं । तो मैं तो धन्य हुई ही । अब इस उपरोक्त महिला संगठन के नाम पर समाज को गलत मार्ग दिखलाने वाली इस मूर्खा महिलाओं जैसों के लिए कुछ ज्ञान की बातें भगवान के ही श्रीमुख से क्यों न कहलावाऊं ।।

अपने अगले अंक में भगवान कपिल के द्वारा माता देवहुति के प्रश्नों का उत्तर सुनेंगे भगवान श्री शुकदेवजी के श्रीमुख से ।।

भगवान नारायण और माता महालक्ष्मी सभी को सद्बुद्धि दें ।।

मित्रों, नित्य नवीन सत्संग हेतु कृपया इस पेज को लाइक करें -
www.facebook.com/swamidhananjaymaharaj

www.dhananjaymaharaj.com
www.sansthanam.com
www.dhananjaymaharaj.blogspot.in
www.sansthanam.blogspot.in

जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।

।। नमों नारायण ।।

No comments:

Post a Comment

Post Bottom Ad

Pages