जय श्रीमन्नारायण,
"जीवनं वर्धनम् चापि धृयते सः धर्मः'' = जीवन एवं वर्धन को जो धारण करता है उसे ही धर्म कहते हैं ।।
मित्रों, प्रकृति के वे नियम एवं सिद्धान्त जिनके आधार पर यह प्रकृति उत्पन्न हुई एवं चलती है, उन्ही नियमों ने प्रकृति को धारण कर रखा है ।।
उसे ही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता में ''धर्म'' कहा गया है । ''धृ'' धातु से उत्पन्न इस शब्द का अर्थ है = जो धारण करता है (किसको हमारे अस्तित्व को) ।।
"जीवनं वर्धनम् चापि धृयते सः धर्मः" = जीवन एवं वर्धन को जो धारण करता है उसे ही धर्म कहते हैं । यह कभी अनेक नहीं होता, यह सार्वभौमिक, शाश्वत एवं सनातन है ।।
पृथ्वी पर मनुष्य के समूहों ने इसे नाना नाम दिए, या नहीं दिए. पर भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता ने इसे 'धर्म' कहा । यह जीवन का सनातन विज्ञान है एवं मनुष्य -निर्मित नहीं ।।
यदि मनुष्य इस धर्म के अनुसार अपना जीवन-यापन करता है तो उसका अस्तित्व सुरक्षित रहता है एवं उसका विकास होता है । इस पृथ्वी पर आजतक ऐसा कोई जीव नहीं हुआ जिसने, जाने या अनजाने या किसी नाम से, ''धर्म'' का उल्लंघन कर के कभी विकास किया हो ।।
अत: किसी भी स्थिति में धर्म का परिहास हमारा ह्रास ही करता है उत्थान नहीं । अत: धर्म का पालन किसी भी परिस्थिति में किसी के लिए भी आवश्यक है ।।
"जीवनं वर्धनम् चापि धृयते सः धर्मः'' = जीवन एवं वर्धन को जो धारण करता है उसे ही धर्म कहते हैं ।।
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उसे ही हमारी संस्कृति एवं सभ्यता में ''धर्म'' कहा गया है । ''धृ'' धातु से उत्पन्न इस शब्द का अर्थ है = जो धारण करता है (किसको हमारे अस्तित्व को) ।।
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http://www.dhananjaymaharaj.com/
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।। नमों नारायण ।।
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