जय श्रीमन्नारायण,
पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ पण्डित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होय ।।
(कबीर दास जी)
इसका अर्थ ये नहीं है की हमारे शास्त्रों या धर्मग्रंथों (पोथी) में प्रेम का उपदेश ही नहीं है । हमारे तो स्वयं भगवान ही प्रेमावातर, प्रेममूर्ति श्री कृष्ण कन्हैया जी हैं । और हमारे शास्त्र तो बहुत कुछ कहते हैं:-
बन्धनानि किल सन्ति बहूनि ।
प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् ।।
अर्थ:- बंधन कई प्रकार के होते हैं लेकिन प्रेम्ररुपी धागे में जो बंधन होता है वह तो कोई विशेष प्रकार का ही है ।।
किमशकनीयं प्रेम्णः । = अर्थात - प्रेम को क्या अशक्य है ? अभिप्राय यह है, कि प्रेम से सब कुछ शक्य है अर्थात प्राप्त किया जा सकता है ।।
प्रेम तो अपरिभाषीय विषय है । प्रेम की कोई परिभाषा नहीं कर सकता । ये तो उस गूंगे व्यक्ति के स्वाद की तरह है जिसे वो जानता तो है, लेकिन बता नहीं सकता ।।
क्योंकि प्रेम कोई लौकिक या प्राकृतिक विषय नहीं है ।।
अकृत्रिमसुखं प्रेम = प्रेम अकृत्रिम सुख है । अर्थात् संसार की वस्तुओं में प्रेम जैसा सुख देने की क्षमता नहीं है । और जो सांसारिक सम्पन्नता को देखकर प्रेम करता है अथवा प्रेम को परिभाषित करता है, वो वो प्रेम टिकाऊ नहीं होता और ना ही उसकी परिभाषा पूर्ण होती है बल्कि ये कहें की उसे प्रेम का अर्थ ही पता नहीं है ।।
वसन्ति हि प्रेम्णि गुणाः न वस्तुषु = प्रेम में गुण निवास करते हैं और वस्तु में प्रेम का नहीं ।।
http://www.dhananjaymaharaj.com/
http://www.sansthanam.com/
http://www.dhananjaymaharaj.blogspot.in/
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।। नमों नारायण ।।
पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ पण्डित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होय ।।
(कबीर दास जी)
इसका अर्थ ये नहीं है की हमारे शास्त्रों या धर्मग्रंथों (पोथी) में प्रेम का उपदेश ही नहीं है । हमारे तो स्वयं भगवान ही प्रेमावातर, प्रेममूर्ति श्री कृष्ण कन्हैया जी हैं । और हमारे शास्त्र तो बहुत कुछ कहते हैं:-
बन्धनानि किल सन्ति बहूनि ।
प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् ।।
अर्थ:- बंधन कई प्रकार के होते हैं लेकिन प्रेम्ररुपी धागे में जो बंधन होता है वह तो कोई विशेष प्रकार का ही है ।।
किमशकनीयं प्रेम्णः । = अर्थात - प्रेम को क्या अशक्य है ? अभिप्राय यह है, कि प्रेम से सब कुछ शक्य है अर्थात प्राप्त किया जा सकता है ।।
प्रेम तो अपरिभाषीय विषय है । प्रेम की कोई परिभाषा नहीं कर सकता । ये तो उस गूंगे व्यक्ति के स्वाद की तरह है जिसे वो जानता तो है, लेकिन बता नहीं सकता ।।
क्योंकि प्रेम कोई लौकिक या प्राकृतिक विषय नहीं है ।।
अकृत्रिमसुखं प्रेम = प्रेम अकृत्रिम सुख है । अर्थात् संसार की वस्तुओं में प्रेम जैसा सुख देने की क्षमता नहीं है । और जो सांसारिक सम्पन्नता को देखकर प्रेम करता है अथवा प्रेम को परिभाषित करता है, वो वो प्रेम टिकाऊ नहीं होता और ना ही उसकी परिभाषा पूर्ण होती है बल्कि ये कहें की उसे प्रेम का अर्थ ही पता नहीं है ।।
वसन्ति हि प्रेम्णि गुणाः न वस्तुषु = प्रेम में गुण निवास करते हैं और वस्तु में प्रेम का नहीं ।।
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