जय श्रीमन्नारायण,
मन.वाणी एवं काया से किसी को पीड़ा न देना ही यज्ञ है । जो बिना कारण ही किसी का दिल दुःखाता है, वह आत्मघात कर रहा है । यज्ञ किए बिना, सत्कर्म नहीं हो सकता, सत्कर्म के बिना चित्तशुद्धि नहीँ हो सकती, चित्तशुद्धि के बिना ज्ञान नहीँ टिकता ।।।
सत्कर्म से सभी इन्द्रियाँ शुद्ध होती है । जिसका मन कलुषित है, उसे परमात्मा का अनुभव नहीँ हो सकता । मानव शरीर एक गगरी है । इसमेँ नौ छिद्र है । छिद्र वाली गगरी कभी आजतक भरी नहीं, प्रत्येक छिद्र से ज्ञान बह जाता है । ज्ञान प्राप्त होना कठिन नही है, किन्तु उसे स्थिर रखना कठिन है । ज्ञान आता तो है किन्तु वह रह नही पाता विकार वासना आदि वेग मे बह जाता है ।।।
वैसे तो सबकी आत्मा ज्ञानमय है, अतः अज्ञानी तो कोई है ही नहीं, किन्तु ज्ञान को सतत् बनाए रखने के लिए इन्द्रियो के द्वारा बहने वाली बुद्धिशक्ति को रोकने का काम हमारा है ।।।
इन्द्रियो को विषयो की ओर न जाने देकर प्रभु के मार्ग की ओर मोड़ना है । ज्ञान टिक नहीँ पाता क्योँकि मानव विलासी हो गया है । समस्त ज्ञान पुस्तक मेँ पड़ा रह जाता है, मस्तक मे जाता ही नहीँ । जो पुस्तको के पीछे दौड़े वह विद्वान है और भक्तिपूर्वक परमात्मा के पीछे दौड़े वह सन्त है ।।।
विद्वान शास्त्र के पीछे दौड़ता है, जबकि शास्त्र सन्त के पीछे दौड़ते है । शास्त्र पढ़कर जो बोले वह विद्वान, प्रभु को प्रसन्न करके उसी मेँ पागल होकर जो बोले वह सन्त है । गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है - अर्जुन, ज्ञान तो तुझी मेँ है । हृदय मे सात्विक भाव जागे, तो मन शुद्ध हो जाय, तब हृदय मेँ से ज्ञान स्वयमेव ही प्रकट हो जाता है ।।।
Contact to "LOK KALYAN MISSION CHARITABLE TRUST, SILVASSA" to organize Shreemad Bhagwat Katha, Free Bhagwat Katha, Shri Ram Katha & Satsang.in your area. you can also book online.
Go On - www.dhananjaymaharaj.com & www.sansthanam.com
E-Mail :: sansthaanam@gmail.com
Mob - +91-9375288850
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(पँ. शिवप्रसाद त्रिपाठी ''आचार्य'')
।।। नमों नारायण ।।।
मन.वाणी एवं काया से किसी को पीड़ा न देना ही यज्ञ है । जो बिना कारण ही किसी का दिल दुःखाता है, वह आत्मघात कर रहा है । यज्ञ किए बिना, सत्कर्म नहीं हो सकता, सत्कर्म के बिना चित्तशुद्धि नहीँ हो सकती, चित्तशुद्धि के बिना ज्ञान नहीँ टिकता ।।।
सत्कर्म से सभी इन्द्रियाँ शुद्ध होती है । जिसका मन कलुषित है, उसे परमात्मा का अनुभव नहीँ हो सकता । मानव शरीर एक गगरी है । इसमेँ नौ छिद्र है । छिद्र वाली गगरी कभी आजतक भरी नहीं, प्रत्येक छिद्र से ज्ञान बह जाता है । ज्ञान प्राप्त होना कठिन नही है, किन्तु उसे स्थिर रखना कठिन है । ज्ञान आता तो है किन्तु वह रह नही पाता विकार वासना आदि वेग मे बह जाता है ।।।
वैसे तो सबकी आत्मा ज्ञानमय है, अतः अज्ञानी तो कोई है ही नहीं, किन्तु ज्ञान को सतत् बनाए रखने के लिए इन्द्रियो के द्वारा बहने वाली बुद्धिशक्ति को रोकने का काम हमारा है ।।।
इन्द्रियो को विषयो की ओर न जाने देकर प्रभु के मार्ग की ओर मोड़ना है । ज्ञान टिक नहीँ पाता क्योँकि मानव विलासी हो गया है । समस्त ज्ञान पुस्तक मेँ पड़ा रह जाता है, मस्तक मे जाता ही नहीँ । जो पुस्तको के पीछे दौड़े वह विद्वान है और भक्तिपूर्वक परमात्मा के पीछे दौड़े वह सन्त है ।।।
विद्वान शास्त्र के पीछे दौड़ता है, जबकि शास्त्र सन्त के पीछे दौड़ते है । शास्त्र पढ़कर जो बोले वह विद्वान, प्रभु को प्रसन्न करके उसी मेँ पागल होकर जो बोले वह सन्त है । गीता मे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है - अर्जुन, ज्ञान तो तुझी मेँ है । हृदय मे सात्विक भाव जागे, तो मन शुद्ध हो जाय, तब हृदय मेँ से ज्ञान स्वयमेव ही प्रकट हो जाता है ।।।
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(पँ. शिवप्रसाद त्रिपाठी ''आचार्य'')
।।। नमों नारायण ।।।
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