वैदिक ब्राह्मणों कि सेवा ही सच्चा धर्म.Vedic Brahmins service only that true religion. - स्वामी जी महाराज.

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वैदिक ब्राह्मणों कि सेवा ही सच्चा धर्म.Vedic Brahmins service only that true religion.

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जय श्रीमन्नारायण,

मुमुक्षवो घोररूपान्हित्वा भूतपतीनथ !! 
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः !! 26 !!(भा.पू.स्क-१.अ-२.)
Swami Shri Dhananjay Ji Maharaj

अर्थ:- जो लोग इस संसार सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्धपि किसी की निंदा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूप - तमोगुणी - रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान् और उनके अंश -----कलास्वरूपों का ही पूजन करते हैं ।।26।। क्योंकि --

वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः !!
वासुदेवपरा योग वासुदेवपराः क्रियाः !! 28 !!

वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः !!
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः !! 29 !!


अर्थ:- वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य नारायण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिए ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी नारायण में ही है।।28।। ज्ञान से ब्रम्हस्वरूप नारायण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या नारायण की प्रसन्नता के लिए ही की जाती हैं। नारायण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ नारायण में ही समा जाती हैं।।29।।

रजस्तमःप्रकृतयः समशीला भजन्ति वै !! पितृभूतप्रजेशादीन्श्रियैश्वर्यप्रजेप्सवः !! 27 !!

अर्थ:- परन्तु जिनका स्वाभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि)- से मिलता-जुलता होता है ।।27।।


लेकिन जो ब्राह्मण सदैव से नारायण तथा शिवादि वैदिक देवताओं के पूजक हैं, उन ब्राह्मणों को मेरा सादर नमन है ! हे ब्राह्मणों, आपको मेरा नमस्कार है ! हे भूदेवों, आपको मेरा नमस्कार है ! हे विद्वान ब्राह्मणों, आपको मेरा कोटि-कोटि नमस्कार है ! आप अपने यजमानों के निमित्त क्या कुछ नहीं करते ?

 
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥(गीता.अ.३.)

अर्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥


हे ब्राह्मणों, आप यज्ञों के कर्ता हो, इस नाते आप ही इस सृष्टि के सच्चे धारक हो, संचालक हो, अत: आपको मेरा कोटि-कोटि नमन है !!

युन्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे ! शोणा धृष्णु नृवाहासा !!(यजुर्वेद.अ.२३.मन्त्र-६.)


अर्थ:- जिस प्रकार एक कुशल सारथी, अपने रथ मे जूते घोड़ों को, कुशलता पूर्वक नियंत्रित रखता है ! ठीक उसी प्रकार, देवताओं तक हवी पहुँचे, इस बात का पूरा ध्यान कुशल ऋत्विज (ब्राह्मण) रखते हैं ! शोणा (अग्नि) धृष्णु (अतुलनीय फलदायी मन्त्र) निश्चित फल ही मिले, और कार्यसिद्धि हो ही, इस बात का कुशल ब्राह्मण सदैव ध्यान रखता है !!!!

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ऐसे ज्ञानी विद्वान ब्राह्मणों को मेरा कोटि-कोटि नमन !!!

!!!! नमों नारायण !!!!

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