जय श्रीमन्नारायण,
यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल !!
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो भवाय रूपाणि दधद्युगे युगे !! 25 !!(भा.पू.स्क.१.अ.१०.)
अर्थ:- जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं, तब ये (परमात्मा) ही सत्त्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते हैं और संसार के कल्याण के लिए युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं ।।25।।
शास्त्रों मे कहा गया है, कि - विश्वासों फलदायकः = विश्वास ही फलदायक सिद्ध होता है ! हमें अपने परमात्मा पर विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि इस संसार मे प्रकृति से बड़ा कोई नहीं है, और ये समयानुसार सबकुछ नियंत्रित करना जानती है !!!
हम जितना ही परमात्मा पर विश्वास रख पायें, हमारे लिए उतना ही फायदेमंद सिद्ध होगा ! लेकिन इसका अर्थ ये कदापि नहीं है, कि हम किसी कि मनमानी को बर्दास्त करें ! हमें पूर्ण प्रयत्न पूर्वक कर्म करना ही चाहिए ! और शास्त्र संत भी यही कहते हैं, तथा सफलता का मूल मन्त्र भी यही है !!
हम अगर केवल भगवान भरोसे बैठें, तो भी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता ! और अगर भगवान को त्यागकर केवल अपने पुरुषार्थ को ही प्रधान मानकर कर्म को भी अपनाएँ, तो भी अहं आ जाता है, जिससे सफलता कि सिद्धि संभव नहीं है !!!
अत: हमें प्रयत्न भी करना है, और साथ ही भगवान को प्रधानता भी देनी है ! फिर तो सफलता हमारी दासी बनकर कदम चूमेगी ! और फिर वो राजनेता हो अथवा धर्मनेता, यहाँ कर्म ही प्रधान है, और हमारे कर्म का फल ही हमें मिलता है !!!
यहाँ किसी के लिए कोई रियायत नहीं है ! अगर होती, तो भगवान राम को वन जाने कि आवश्यकता न होती ! अगर कर्म प्रधान नहीं होता, तो - मथुराम् स्वपरिम् त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतां = कृष्ण को मथुरा छोडकर, समुद्र मे छिपने कि आवश्यकता न होती ! भगवान होते हुए भी इस तरह कि आवश्यकता पड़ी, क्योंकि जरासंध के कर्म इतने प्रबल थे, कि उसके पुरुषार्थ उसके कर्म के आगे स्वयं भगवान को भी हथियार डालना पड़ा !!
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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें !!!
!!!! नमों नारायण !!!!
यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल !!
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो भवाय रूपाणि दधद्युगे युगे !! 25 !!(भा.पू.स्क.१.अ.१०.)
अर्थ:- जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्म से अपना पेट पालने लगते हैं, तब ये (परमात्मा) ही सत्त्वगुण को स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते हैं और संसार के कल्याण के लिए युग-युग में अनेकों अवतार धारण करते हैं ।।25।।
शास्त्रों मे कहा गया है, कि - विश्वासों फलदायकः = विश्वास ही फलदायक सिद्ध होता है ! हमें अपने परमात्मा पर विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि इस संसार मे प्रकृति से बड़ा कोई नहीं है, और ये समयानुसार सबकुछ नियंत्रित करना जानती है !!!
हम जितना ही परमात्मा पर विश्वास रख पायें, हमारे लिए उतना ही फायदेमंद सिद्ध होगा ! लेकिन इसका अर्थ ये कदापि नहीं है, कि हम किसी कि मनमानी को बर्दास्त करें ! हमें पूर्ण प्रयत्न पूर्वक कर्म करना ही चाहिए ! और शास्त्र संत भी यही कहते हैं, तथा सफलता का मूल मन्त्र भी यही है !!
हम अगर केवल भगवान भरोसे बैठें, तो भी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता ! और अगर भगवान को त्यागकर केवल अपने पुरुषार्थ को ही प्रधान मानकर कर्म को भी अपनाएँ, तो भी अहं आ जाता है, जिससे सफलता कि सिद्धि संभव नहीं है !!!
अत: हमें प्रयत्न भी करना है, और साथ ही भगवान को प्रधानता भी देनी है ! फिर तो सफलता हमारी दासी बनकर कदम चूमेगी ! और फिर वो राजनेता हो अथवा धर्मनेता, यहाँ कर्म ही प्रधान है, और हमारे कर्म का फल ही हमें मिलता है !!!
यहाँ किसी के लिए कोई रियायत नहीं है ! अगर होती, तो भगवान राम को वन जाने कि आवश्यकता न होती ! अगर कर्म प्रधान नहीं होता, तो - मथुराम् स्वपरिम् त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतां = कृष्ण को मथुरा छोडकर, समुद्र मे छिपने कि आवश्यकता न होती ! भगवान होते हुए भी इस तरह कि आवश्यकता पड़ी, क्योंकि जरासंध के कर्म इतने प्रबल थे, कि उसके पुरुषार्थ उसके कर्म के आगे स्वयं भगवान को भी हथियार डालना पड़ा !!
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नारायण सभी का नित्य कल्याण करें !!!
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