सत्संग ही शान्ति, सुख, समृद्धि और सामाजिक ज्ञान के साथ हँसकर जीना सिखाता है ।। Satsang Jivan Me Shanti Sukh And Samriddhi Deta Hai.
जय श्रीमन्नारायण,
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।3।।
अर्थ:- रस के मर्मज्ञ भक्तजनों ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के मुख का संबन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है । इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नही है । यह मूर्तिमान रस है, जब तक शरीर में चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद रस का निरंतर बार-बार पान करते रहो क्योंकि यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ।।3।।
जी हाँ मित्रों, पृथ्वी जिसे सृष्टि कहा जाता है और सृष्टि को ही ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है । विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए भी, लगता है जैसे अन्य रूपों में भी दिख रहा है अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है । इसलिए संसार को छोड़कर पाया गया परमात्मा भी अधूरा ही होगा । अगर भौतिकता अपूर्ण है, तो अध्यात्मिकता भी अपूर्ण है । अत: एक अपूर्णता को छोड़कर दूसरी अपूर्णता के पीछे भागने का क्या लाभ ?।।
मित्रों, जीवन तो प्रकृति की अनुपम भेंट है । यह सृष्टि की एक ऐसी कृति है, जो अति दुर्लभ है । प्रत्येक मानव को यह जीवन गुजारना ही पडता है, अब चाहे वह इसे रोकर गुजारें या हंसकर । रहना तो यहीं पडता है और जब रहना इसी संसार में है और वह भी गिने-चुने दिनों तक तो फिर इन थोडे से दिनों को रो-रोकर ही क्यों गुजारा जाय ? हंसकर क्यों नहीं ?।।
सेवा और त्याग भरतखंड (भारत) का जन्मजात आदर्श है । परन्तु आज के समय में इस पर पश्चिमी भोगवादी संस्कृति का धूल बैठ गया है । सेवा के स्थान पर शोषण के मार्ग पर चल रहे हैं हम । अधिक शिक्षित हमारी युवा पीढ़ी जैसे शिक्षित बर्बर बन रहे हैं । ऐसी शिक्षा नही चाहिए जो मनुष्य को राक्षस बनाने वाली बन जाय । मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली और अशिक्षा को दूर करने वाली शिक्षा चाहिए हमें ।।
मित्रों, यही चिंतन देशवासियों के सम्मुख स्वामी विवेकानंद ने रखा था । उनका दृढ विश्वास इन शव्दों में झलक रहा है और मुझे लगता है, कि हमारे देश और समाज की नींव अभी भी बहुत मजबूत है । इस बात में मुझे कोई आशंका नहीं है मात्र भवन ही जर्जर हुआ है जिसका नवनिर्माण हो सकता है । हम यह कर भी सकते हैं इसलिए मेरे हिसाब से यही हमारी नई पीढ़ी का दायित्व है ।।
जिस प्रेम की गलत व्याख्याओं का दौर चल रहा है हमारे समाज में उसे रोकना होगा । क्योंकि प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता । प्रेम केवल और केवल अनुभूति की वस्तु है जिसके पास शब्द नहीं उसके मौन की भाषा होती है प्रेम । जब मनुष्य में किसी प्राणी के प्रति आसक्ति या घृणा का भाव नही होता और वह सदा समभाव बना रहता है उस व्यक्ति के लिए सभी स्थान सदैव सुख से सराबोर होते है ।।
ठीक उसी प्रकार प्रेम-प्रेम-प्रेम कहने मात्र से प्रेम परिभाषित नहीं हो जाता प्रेम अन्दर की समरसता का ही दूसरा नाम है । और इस प्रकार का ज्ञान सिर्फ-और-सिर्फ सत्संग से ही सम्भव है । सत्संग ही शान्ति, सुख, समृद्धि, ज्ञान और सामाजिक सद्भावना को जन्म दे सकता है । समाज में आपसी सदव्यवहार का ही दूसरा नाम प्रेम है और वो सत्संग से ही सम्भव हो सकता है ।।
जय श्रीमन्नारायण,
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।3।।
अर्थ:- रस के मर्मज्ञ भक्तजनों ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के मुख का संबन्ध हो जाने से यह परमानन्दमयी सुधा से परिपूर्ण हो गया है । इस फल में छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नही है । यह मूर्तिमान रस है, जब तक शरीर में चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद रस का निरंतर बार-बार पान करते रहो क्योंकि यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ।।3।।
जी हाँ मित्रों, पृथ्वी जिसे सृष्टि कहा जाता है और सृष्टि को ही ब्रह्म का विवर्त भी कहा गया है । विवर्त का अर्थ है कारण या किसी वस्तु का अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए भी, लगता है जैसे अन्य रूपों में भी दिख रहा है अर्थात् परिवर्तन वास्तविक नहीं बल्कि आभास मात्र है । इसलिए संसार को छोड़कर पाया गया परमात्मा भी अधूरा ही होगा । अगर भौतिकता अपूर्ण है, तो अध्यात्मिकता भी अपूर्ण है । अत: एक अपूर्णता को छोड़कर दूसरी अपूर्णता के पीछे भागने का क्या लाभ ?।।
मित्रों, जीवन तो प्रकृति की अनुपम भेंट है । यह सृष्टि की एक ऐसी कृति है, जो अति दुर्लभ है । प्रत्येक मानव को यह जीवन गुजारना ही पडता है, अब चाहे वह इसे रोकर गुजारें या हंसकर । रहना तो यहीं पडता है और जब रहना इसी संसार में है और वह भी गिने-चुने दिनों तक तो फिर इन थोडे से दिनों को रो-रोकर ही क्यों गुजारा जाय ? हंसकर क्यों नहीं ?।।
सेवा और त्याग भरतखंड (भारत) का जन्मजात आदर्श है । परन्तु आज के समय में इस पर पश्चिमी भोगवादी संस्कृति का धूल बैठ गया है । सेवा के स्थान पर शोषण के मार्ग पर चल रहे हैं हम । अधिक शिक्षित हमारी युवा पीढ़ी जैसे शिक्षित बर्बर बन रहे हैं । ऐसी शिक्षा नही चाहिए जो मनुष्य को राक्षस बनाने वाली बन जाय । मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली और अशिक्षा को दूर करने वाली शिक्षा चाहिए हमें ।।
मित्रों, यही चिंतन देशवासियों के सम्मुख स्वामी विवेकानंद ने रखा था । उनका दृढ विश्वास इन शव्दों में झलक रहा है और मुझे लगता है, कि हमारे देश और समाज की नींव अभी भी बहुत मजबूत है । इस बात में मुझे कोई आशंका नहीं है मात्र भवन ही जर्जर हुआ है जिसका नवनिर्माण हो सकता है । हम यह कर भी सकते हैं इसलिए मेरे हिसाब से यही हमारी नई पीढ़ी का दायित्व है ।।
जिस प्रेम की गलत व्याख्याओं का दौर चल रहा है हमारे समाज में उसे रोकना होगा । क्योंकि प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता । प्रेम केवल और केवल अनुभूति की वस्तु है जिसके पास शब्द नहीं उसके मौन की भाषा होती है प्रेम । जब मनुष्य में किसी प्राणी के प्रति आसक्ति या घृणा का भाव नही होता और वह सदा समभाव बना रहता है उस व्यक्ति के लिए सभी स्थान सदैव सुख से सराबोर होते है ।।
ठीक उसी प्रकार प्रेम-प्रेम-प्रेम कहने मात्र से प्रेम परिभाषित नहीं हो जाता प्रेम अन्दर की समरसता का ही दूसरा नाम है । और इस प्रकार का ज्ञान सिर्फ-और-सिर्फ सत्संग से ही सम्भव है । सत्संग ही शान्ति, सुख, समृद्धि, ज्ञान और सामाजिक सद्भावना को जन्म दे सकता है । समाज में आपसी सदव्यवहार का ही दूसरा नाम प्रेम है और वो सत्संग से ही सम्भव हो सकता है ।।
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