कर्मों की गति बड़ी न्यारी होती है ।। Karmon Ki Gati Badi Nyari Hoti Hai.
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, गीता के तीसरे अध्याय, कर्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता । क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।।5।।
गहना कर्मणो गतिः । कर्मों की गति बड़ी ही गहन होती है क्योंकि कर्मों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती । कर्म को जड़ कहा गया है क्योंकि उन्हें पता नहीं होता है कि वे कर्म हैं । कर्म मनुष्य की वृत्तियों से प्रतीत होते हैं । यदि विहित अर्थात शास्त्रोक्त संस्कार होते हैं तो पुण्य प्रतीत होता है और निषिद्ध संस्कार होते हैं तो पाप प्रतीत होता है । इसीलिए भगवान कहते हैं, कि विहितं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: अर्थात हे अर्जुन तूं विहित कर्मों को कर ।।
मित्रों, इसमें भी कर्म नियंत्रित होने चाहिए क्योंकि नियंत्रित विहित कर्म ही धर्म कहा जाता है । जैसे सुबह जल्दी उठकर थोड़ी देर के लिए परमात्मा के ध्यान में शान्त रहना और सूर्योदय से पहले स्नान करना । उपरान्त संध्या-वन्दन इत्यादि करना, ऐसे कर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माने गये हैं और सात्त्विक होने के कारण पुण्यदायी भी हैं । परंतु किसी के मन में विपरीत संस्कार पड़े हैं तो वह सोचेगा कि 'इतनी सुबह उठकर स्नान करके क्या करूँगा ?।।
ऐसे लोग सूर्योदय के पश्चात् उठते हैं, उठते ही सबसे पहले बिस्तर पर चाय की माँग करते हैं और बिना स्नान किये ही नाश्ता कर लेते हैं । शास्त्रानुसार ऐसे कर्म निषिद्ध कर्मों की श्रेणी के कहे गये हैं । ऐसे लोग वर्तमान में भले ही अपने को सुखी मान लें परंतु आगे चलकर शरीर अधिक रोगग्रस्त होगा । यदि सावधान नहीं रहे तो तमस् के कारण नारकीय योनियों में जाना पड़ सकता है ।।
भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में कहा भी कहा है कि 'मुझे इन तीन लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त है । फिर भी मैं कर्म करता हूँ । और वैसे भी - न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता । क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।।5।।
भगवान कहते हैं, कि हे अर्जुन तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । वैसे भी किसी भी मनुष्य का कर्म न करने से शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा । जहाँ तक परमात्म प्राप्ति की भी बात है तो वो भी अकर्मण्यता से सिद्ध होने वाला नहीं है । क्योंकि भगवान कहते हैं, कि मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।।
मित्रों, जिस अवस्था को प्राप्त होकर किसी भी व्यक्ति के कर्म अकर्म बन जाते हैं अर्थात फल की कामना से रहित हो जाते हैं, उस स्थिति को निष्कर्मता कहते है । इसलिए मित्रों, मनुष्य को चाहिये की वह कोई भी कर्म ये समझकर करे की वो एक यज्ञानुष्ठान कर रहा है । क्योंकि यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य कर्मों के बन्धन में बँध जाता है ।।
भगवान कहते हैं, कि इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर । क्योंकि, यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। अर्थात यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं । और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं ।।
जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, गीता के तीसरे अध्याय, कर्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता । क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।।5।।
गहना कर्मणो गतिः । कर्मों की गति बड़ी ही गहन होती है क्योंकि कर्मों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती । कर्म को जड़ कहा गया है क्योंकि उन्हें पता नहीं होता है कि वे कर्म हैं । कर्म मनुष्य की वृत्तियों से प्रतीत होते हैं । यदि विहित अर्थात शास्त्रोक्त संस्कार होते हैं तो पुण्य प्रतीत होता है और निषिद्ध संस्कार होते हैं तो पाप प्रतीत होता है । इसीलिए भगवान कहते हैं, कि विहितं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: अर्थात हे अर्जुन तूं विहित कर्मों को कर ।।
मित्रों, इसमें भी कर्म नियंत्रित होने चाहिए क्योंकि नियंत्रित विहित कर्म ही धर्म कहा जाता है । जैसे सुबह जल्दी उठकर थोड़ी देर के लिए परमात्मा के ध्यान में शान्त रहना और सूर्योदय से पहले स्नान करना । उपरान्त संध्या-वन्दन इत्यादि करना, ऐसे कर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माने गये हैं और सात्त्विक होने के कारण पुण्यदायी भी हैं । परंतु किसी के मन में विपरीत संस्कार पड़े हैं तो वह सोचेगा कि 'इतनी सुबह उठकर स्नान करके क्या करूँगा ?।।
ऐसे लोग सूर्योदय के पश्चात् उठते हैं, उठते ही सबसे पहले बिस्तर पर चाय की माँग करते हैं और बिना स्नान किये ही नाश्ता कर लेते हैं । शास्त्रानुसार ऐसे कर्म निषिद्ध कर्मों की श्रेणी के कहे गये हैं । ऐसे लोग वर्तमान में भले ही अपने को सुखी मान लें परंतु आगे चलकर शरीर अधिक रोगग्रस्त होगा । यदि सावधान नहीं रहे तो तमस् के कारण नारकीय योनियों में जाना पड़ सकता है ।।
भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में कहा भी कहा है कि 'मुझे इन तीन लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त है । फिर भी मैं कर्म करता हूँ । और वैसे भी - न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता । क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।।5।।
भगवान कहते हैं, कि हे अर्जुन तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । वैसे भी किसी भी मनुष्य का कर्म न करने से शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा । जहाँ तक परमात्म प्राप्ति की भी बात है तो वो भी अकर्मण्यता से सिद्ध होने वाला नहीं है । क्योंकि भगवान कहते हैं, कि मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।।
मित्रों, जिस अवस्था को प्राप्त होकर किसी भी व्यक्ति के कर्म अकर्म बन जाते हैं अर्थात फल की कामना से रहित हो जाते हैं, उस स्थिति को निष्कर्मता कहते है । इसलिए मित्रों, मनुष्य को चाहिये की वह कोई भी कर्म ये समझकर करे की वो एक यज्ञानुष्ठान कर रहा है । क्योंकि यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों के अलावा दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य कर्मों के बन्धन में बँध जाता है ।।
भगवान कहते हैं, कि इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर । क्योंकि, यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। अर्थात यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं । और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं ।।
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