जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, गोस्वामीजी ने एक लाइन लिखी है - मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं सब सूला ।। मोह बहुत ही खतरनाक चीज है, इसी के कारण महाराज दशरथ की मृत्यु हुई । द्रोणाचार्य को कहा गया "अश्वस्थामा हत:" बिना सोचे-समझे आत्मसमर्पण कर दिया ।।
आगे तो क्या कहें जैसा की आप जानते हैं, महाराज धृतराष्ट्र अंधे थे, परन्तु इस अंधे ने क्या नहीं कर डाला पुत्र मोह में ? संसार में सबसे जीव इस मोह में पड़कर क्या नहीं कर डालता है ? उसपर भी संतान मोह क्या होता है, आप सभी में जो गृहस्थ है वो बखूबी इस बात को समझते होंगे ।।
मित्रों, अर्जुन जैसा महारथी भी चिता पर चढ़ने को तैयार हो गया अभिमन्यु के मृत्यु का समाचार सुनकर । भगवान के बार-बार कहने पर भी की इस संसार का "कर्ता-धर्ता" मैं हूँ । परन्तु गीता जैसे ग्रन्थ को सुनने वाला अर्जुन भी पुत्र मोह में भूल गया कि भगवान ही सर्वेश्वर हैं ।।
गोस्वामीजी ने एक और बात कही है - प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं । भला प्रभुता पाकर किसको मद नहीं होता ? बात उस समय की है, जब सारी सेना समाप्त हो चुकी थी । महारथी के रुप में कौरवों के तरफ से केवल कर्ण बचा था ।।
अर्जुन को अपनी विजय करीब दिख रही थी । फूला नहीं समा रहा था, कि इतना बड़ा युद्ध जिससे संसार के सभी महारथी भयभीत थे, अठारह ही दिन में हमने अपने बहुबल से जीत लिया । ये सब मेरे दिव्य हस्तकौशल और मेरे दिव्यास्त्रों का प्रभाव है ।।
भगवान तो "अन्तर्यामी सब मन की जानी" जान गये । सोंचा इसे अहँकार हो गया है और इसे अब दूर करना ही पड़ेगा । क्योंकि भगवान का भोजन ही अपने भक्तों का अहँकार है । अर्जुन और कर्ण में युद्ध चल रहा था, भगवान ने कहा, अर्जुन ! तुम कैसे युद्ध कर रहे हो ? शत्रु पक्ष प्रबल दिख रहा है ।।
ऐसा कहकर कर्ण जब बाण मारे तो अर्जुन का रथ तीन कदम पीछे हटे । भगवान उछल के खड़े हो जांयें और कर्ण की प्रशंसा करें । वाह रे कर्ण साधुवाद ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं ! तुम्हारे गुरु धन्य हैं ! कर्ण तुम्हें साधुवाद ।।
फिर क्या था अर्जुन जोश में आ गया और लगा बाण चलाने । परन्तु फिर भी कर्ण बाण मारे तो अर्जुन का रथ तीन कदम पीछे हट जाय और अर्जुन मारे तो कर्ण का रथ आठ कदम पीछे हटे । भगवान ने फिर ललकारा तो साठ फिर सौ कदम पीछे हटा कर्ण का रथ ।। भगवान गुस्से का दिखावा करते हुये खड़े हों गए और बोले, अरे अर्जुन ! तुम्हें हो क्या गया है ? दिव्यास्त्रों का ज्ञान तो है न, की भूल गये ? अर्जुन तुम्हें हो क्या गया है ? तुम कैसे युद्ध कर रहे हो ? तब भी अर्जुन को समझ में नहीं आया ।।
फिर भी रहा नहीं गया और बोला प्रभु ! मैं सौ कदम उसका रथ हटाता हूँ तो आप कहते हो क्या हो गया है । कर्ण मात्र तीन कदम हटाता है तो साधुवाद की झड़ी लगा देते हो, बात क्या है ?।।
भगवान कृष्ण ने कहा, अरे अर्जुन ! तुम एक साधारण रथ को पीछे फेंक रहे हो । जबकि मैं त्रिलोकी का भार लेकर बैठा हूँ तुम्हारे रथ पर ! इसका अर्थ तो यही हुआ न कि कर्ण समूची त्रिलोकी को तीन कदम पीछे हटा रहा है ।।
अब तो अर्जुन आ गया ताव में और बोला - प्रभु ! कृपया आप अपने त्रिलोकी को लेकर उतर जाइये । अर्जुन तो ये सोच रहा था, कि जब इतना जीत लिया तो कर्ण कितनी देर टिकेगा मेरे सामने ? इसलिए ताव में आकर बोला, कि कृपया उतर जाइये ।।
फिर क्या था ? जैसे ही भगवान ने रथ के नीचे पांव रखा कर्ण ने बाण चलाया और उसका बाण अर्जुन के रथ को लगा । रथ ने तो जमीन ही छोड़ दिया आसमान में उड़ने लगा जैसे गिद्ध उड़ा करते हैं । बवंडर में फंसी हुई पत्ती की तरह कभी उल्टा-कभी सीधा सौ यॊजन दूर जा के गिरा ।।
परन्तु रथ तो दिव्य था, दिव्य घोड़े थे, बिगड़ा तो कुछ नहीं, एक घड़ी में भागता हुआ वापस आ गया । साथ ही उसकी अक्ल भी ठिकाने आ गयी और बोला प्रभु ! जल्दी रथ पर बैठिये । अब हम समझ गये कि हमारा किया कुछ भी नहीं होता है । जल्दी संभालिये नहीं तो हम तो गये काम से ।। सबकुछ जानने के बाद भी कभी-कभी इन्सान भटक जाता है थोड़ी सी प्रभुता पाकर । फिर गुरुओं को गुरु माता-पिता को माँ-बापू भी कहना बंद कर देता है । हमने किया-हमने किया कहने लगता है । भगवान को छोड़ कर जो बकरी की तरह मैं-मैं करने लगता है, उसका तो फिर कटना निश्चित हो जाता है ।।
भगवान को नित्य अपने आस-पास अनुभव करवाता है, भगवान को श्रेय देना । करें हम फिर भी कहें की भगवान की कृपा से हुआ है । इसी को सर्वोत्तम भक्ति कहा गया है । शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन ही भगवान के आदेश का पालन कहा गया है ।।
मित्रों, किसी की आज्ञापालन को ही उसकी भक्ति कही गयी है । क्योंकि भज सेवायाम् धातु से भक्ति शब्द बना है, इसलिए यही भजन है और इसे ही भक्ति कहते हैं । माता सीता ने भईया लखन को आदेश दिया, उन्होंने चाहे जैसे भी हो न माना ।।
एक रेखा खींचकर गए और कहा - माता मैं आपको आदेश तो नहीं दे सकता परन्तु प्रार्थना है, कि इस रेखा का उलंघन मत करना । उस आदेश का भी पालन नहीं किया गया जिसका प्रायश्चित इन सभी को भोगना पड़ा ।।
भगवान ने जो चिह्न रख दिया कि यहां पांव रख, तो इंचभर भी दाहिने-बायें रखा तो उसका प्रायश्चित करना ही पड़ेगा । इसलिए शास्त्रों में लिखा ही भगवान का आदेश है और आज्ञापालन ही भगवान का भजन है ।। भगवान के नाम का संकीर्तन मात्र ही भजन नहीं है, अपितु शास्त्रनिर्देश का पालन भी भजन ही है । शास्त्रों की बातों का उल्लंघन व्यक्ति अपने स्वार्थों के वजह से ही करता है । और हमारा स्वार्थ हमारे मोह के कारण उत्पन्न होता है । इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा - मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं सब सूला ।। ===============================================
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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।। नमों नारायण ।।
मित्रों, गोस्वामीजी ने एक लाइन लिखी है - मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं सब सूला ।। मोह बहुत ही खतरनाक चीज है, इसी के कारण महाराज दशरथ की मृत्यु हुई । द्रोणाचार्य को कहा गया "अश्वस्थामा हत:" बिना सोचे-समझे आत्मसमर्पण कर दिया ।।
आगे तो क्या कहें जैसा की आप जानते हैं, महाराज धृतराष्ट्र अंधे थे, परन्तु इस अंधे ने क्या नहीं कर डाला पुत्र मोह में ? संसार में सबसे जीव इस मोह में पड़कर क्या नहीं कर डालता है ? उसपर भी संतान मोह क्या होता है, आप सभी में जो गृहस्थ है वो बखूबी इस बात को समझते होंगे ।।
मित्रों, अर्जुन जैसा महारथी भी चिता पर चढ़ने को तैयार हो गया अभिमन्यु के मृत्यु का समाचार सुनकर । भगवान के बार-बार कहने पर भी की इस संसार का "कर्ता-धर्ता" मैं हूँ । परन्तु गीता जैसे ग्रन्थ को सुनने वाला अर्जुन भी पुत्र मोह में भूल गया कि भगवान ही सर्वेश्वर हैं ।।
गोस्वामीजी ने एक और बात कही है - प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं । भला प्रभुता पाकर किसको मद नहीं होता ? बात उस समय की है, जब सारी सेना समाप्त हो चुकी थी । महारथी के रुप में कौरवों के तरफ से केवल कर्ण बचा था ।।
अर्जुन को अपनी विजय करीब दिख रही थी । फूला नहीं समा रहा था, कि इतना बड़ा युद्ध जिससे संसार के सभी महारथी भयभीत थे, अठारह ही दिन में हमने अपने बहुबल से जीत लिया । ये सब मेरे दिव्य हस्तकौशल और मेरे दिव्यास्त्रों का प्रभाव है ।।
भगवान तो "अन्तर्यामी सब मन की जानी" जान गये । सोंचा इसे अहँकार हो गया है और इसे अब दूर करना ही पड़ेगा । क्योंकि भगवान का भोजन ही अपने भक्तों का अहँकार है । अर्जुन और कर्ण में युद्ध चल रहा था, भगवान ने कहा, अर्जुन ! तुम कैसे युद्ध कर रहे हो ? शत्रु पक्ष प्रबल दिख रहा है ।।
ऐसा कहकर कर्ण जब बाण मारे तो अर्जुन का रथ तीन कदम पीछे हटे । भगवान उछल के खड़े हो जांयें और कर्ण की प्रशंसा करें । वाह रे कर्ण साधुवाद ! तुम धन्य हो ! तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं ! तुम्हारे गुरु धन्य हैं ! कर्ण तुम्हें साधुवाद ।।
फिर क्या था अर्जुन जोश में आ गया और लगा बाण चलाने । परन्तु फिर भी कर्ण बाण मारे तो अर्जुन का रथ तीन कदम पीछे हट जाय और अर्जुन मारे तो कर्ण का रथ आठ कदम पीछे हटे । भगवान ने फिर ललकारा तो साठ फिर सौ कदम पीछे हटा कर्ण का रथ ।। भगवान गुस्से का दिखावा करते हुये खड़े हों गए और बोले, अरे अर्जुन ! तुम्हें हो क्या गया है ? दिव्यास्त्रों का ज्ञान तो है न, की भूल गये ? अर्जुन तुम्हें हो क्या गया है ? तुम कैसे युद्ध कर रहे हो ? तब भी अर्जुन को समझ में नहीं आया ।।
फिर भी रहा नहीं गया और बोला प्रभु ! मैं सौ कदम उसका रथ हटाता हूँ तो आप कहते हो क्या हो गया है । कर्ण मात्र तीन कदम हटाता है तो साधुवाद की झड़ी लगा देते हो, बात क्या है ?।।
भगवान कृष्ण ने कहा, अरे अर्जुन ! तुम एक साधारण रथ को पीछे फेंक रहे हो । जबकि मैं त्रिलोकी का भार लेकर बैठा हूँ तुम्हारे रथ पर ! इसका अर्थ तो यही हुआ न कि कर्ण समूची त्रिलोकी को तीन कदम पीछे हटा रहा है ।।
अब तो अर्जुन आ गया ताव में और बोला - प्रभु ! कृपया आप अपने त्रिलोकी को लेकर उतर जाइये । अर्जुन तो ये सोच रहा था, कि जब इतना जीत लिया तो कर्ण कितनी देर टिकेगा मेरे सामने ? इसलिए ताव में आकर बोला, कि कृपया उतर जाइये ।।
फिर क्या था ? जैसे ही भगवान ने रथ के नीचे पांव रखा कर्ण ने बाण चलाया और उसका बाण अर्जुन के रथ को लगा । रथ ने तो जमीन ही छोड़ दिया आसमान में उड़ने लगा जैसे गिद्ध उड़ा करते हैं । बवंडर में फंसी हुई पत्ती की तरह कभी उल्टा-कभी सीधा सौ यॊजन दूर जा के गिरा ।।
परन्तु रथ तो दिव्य था, दिव्य घोड़े थे, बिगड़ा तो कुछ नहीं, एक घड़ी में भागता हुआ वापस आ गया । साथ ही उसकी अक्ल भी ठिकाने आ गयी और बोला प्रभु ! जल्दी रथ पर बैठिये । अब हम समझ गये कि हमारा किया कुछ भी नहीं होता है । जल्दी संभालिये नहीं तो हम तो गये काम से ।। सबकुछ जानने के बाद भी कभी-कभी इन्सान भटक जाता है थोड़ी सी प्रभुता पाकर । फिर गुरुओं को गुरु माता-पिता को माँ-बापू भी कहना बंद कर देता है । हमने किया-हमने किया कहने लगता है । भगवान को छोड़ कर जो बकरी की तरह मैं-मैं करने लगता है, उसका तो फिर कटना निश्चित हो जाता है ।।
भगवान को नित्य अपने आस-पास अनुभव करवाता है, भगवान को श्रेय देना । करें हम फिर भी कहें की भगवान की कृपा से हुआ है । इसी को सर्वोत्तम भक्ति कहा गया है । शास्त्रों के सिद्धान्तों का पालन ही भगवान के आदेश का पालन कहा गया है ।।
मित्रों, किसी की आज्ञापालन को ही उसकी भक्ति कही गयी है । क्योंकि भज सेवायाम् धातु से भक्ति शब्द बना है, इसलिए यही भजन है और इसे ही भक्ति कहते हैं । माता सीता ने भईया लखन को आदेश दिया, उन्होंने चाहे जैसे भी हो न माना ।।
एक रेखा खींचकर गए और कहा - माता मैं आपको आदेश तो नहीं दे सकता परन्तु प्रार्थना है, कि इस रेखा का उलंघन मत करना । उस आदेश का भी पालन नहीं किया गया जिसका प्रायश्चित इन सभी को भोगना पड़ा ।।
भगवान ने जो चिह्न रख दिया कि यहां पांव रख, तो इंचभर भी दाहिने-बायें रखा तो उसका प्रायश्चित करना ही पड़ेगा । इसलिए शास्त्रों में लिखा ही भगवान का आदेश है और आज्ञापालन ही भगवान का भजन है ।। भगवान के नाम का संकीर्तन मात्र ही भजन नहीं है, अपितु शास्त्रनिर्देश का पालन भी भजन ही है । शास्त्रों की बातों का उल्लंघन व्यक्ति अपने स्वार्थों के वजह से ही करता है । और हमारा स्वार्थ हमारे मोह के कारण उत्पन्न होता है । इसीलिए गोस्वामीजी ने कहा - मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं सब सूला ।। ===============================================
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।। नमों नारायण ।।
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