जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, वैसे तो सभी भक्तों पर सदैव ही भगवान की प्रेम और करुणा बनी ही रहती है । परन्तु जिस भक्त पर भगवान को अपनापन या प्यार हो जाय फिर उस पर करुणा के सिवा उन्हें कभी क्रोध नहीं आता ।।
भगवान अपने भक्त के दोषों को आंखों से देखकर भी उसपर ध्यान नहीं देते । यदि कहीं उसका गुण सुनने में भी आ गया तो संत समाज में उसकी प्रशंसा करते हैं ।।
भला, बताइए तो प्रभु की ऐसी कौन सी बानि (रीति) है कि उनको अपने सेवक पर केवल प्रीति रखने से ही तृप्ति नहीं होती, बल्कि ममत्ववश अथवा अपनेपन की आसक्ति वश उसके लिए स्वयं दु:खतक सहने को तत्पर रहते हैं ।।
अपने भक्तों के ही सुख में सुख और अनिष्ट में अनिष्ट मानते हैं । भगवान श्रीराम जी का कथन है कि मुझको सभी समदर्शी कहते हैं । किंतु मुझे सेवक पर इसलिए प्रेम रखना पड़ता है कि वह संपूर्ण जगत को मेरे ही रूप में देखकर अनन्य गतिवाला हो जाता है ।।
जब उसकी दृष्टि में "निज प्रभुमय जगत" हो जाता है, तो मैं किसकी बराबरी से समदर्शिता प्रकट करुं ? राजगद्दी हो जाने के बाद भालु - वानरों को विदा करते समय अवधनाथ भगवान श्रीराम जी ने अपना स्वभाव बतलाया है ।। भगवान श्रीराम कहते हैं - "हे सेवकों और भक्तों" ! मुझको अपने भाई, राज्यश्री, स्वयं श्रीजनकी जी, अपना शरीर, घर, परिवार तथा और भी हित-नातावाले उतने प्रिय नहीं हैं, जितने कि आपलोग हैं ।।
मैं यह सत्य-सत्य कह रहा हूँ, यहीं मेरी विरदावली है । वैसे तो यह रीति है कि सेवक सभी को प्यारे होते हैं, परंतु मुझको अपने दास (भक्त) पर सबसे बढ़कर प्रीति रहती है ।।
भक्ति के अलावा अन्य प्रकार के रिश्तों की गणना भक्तवत्सल भगवान दरबार में है ही नहीं । शबरी से स्पष्ट कहा गया है - "मानउं एक भगति कर नाता ।।"
भक्त निषाद को "सखा" का दरजा मिला ही, कोल - किरातों तक को कृतार्थ किया गया । भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी । मेरे प्रभु ही ऐसे अनुपम भक्तवत्सल हैं जो सभी प्रकार के भक्तों का सदा ही ख्याल रखते हैं ।।
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।। नमों नारायण ।।
मित्रों, वैसे तो सभी भक्तों पर सदैव ही भगवान की प्रेम और करुणा बनी ही रहती है । परन्तु जिस भक्त पर भगवान को अपनापन या प्यार हो जाय फिर उस पर करुणा के सिवा उन्हें कभी क्रोध नहीं आता ।।
भगवान अपने भक्त के दोषों को आंखों से देखकर भी उसपर ध्यान नहीं देते । यदि कहीं उसका गुण सुनने में भी आ गया तो संत समाज में उसकी प्रशंसा करते हैं ।।
भला, बताइए तो प्रभु की ऐसी कौन सी बानि (रीति) है कि उनको अपने सेवक पर केवल प्रीति रखने से ही तृप्ति नहीं होती, बल्कि ममत्ववश अथवा अपनेपन की आसक्ति वश उसके लिए स्वयं दु:खतक सहने को तत्पर रहते हैं ।।
अपने भक्तों के ही सुख में सुख और अनिष्ट में अनिष्ट मानते हैं । भगवान श्रीराम जी का कथन है कि मुझको सभी समदर्शी कहते हैं । किंतु मुझे सेवक पर इसलिए प्रेम रखना पड़ता है कि वह संपूर्ण जगत को मेरे ही रूप में देखकर अनन्य गतिवाला हो जाता है ।।
जब उसकी दृष्टि में "निज प्रभुमय जगत" हो जाता है, तो मैं किसकी बराबरी से समदर्शिता प्रकट करुं ? राजगद्दी हो जाने के बाद भालु - वानरों को विदा करते समय अवधनाथ भगवान श्रीराम जी ने अपना स्वभाव बतलाया है ।। भगवान श्रीराम कहते हैं - "हे सेवकों और भक्तों" ! मुझको अपने भाई, राज्यश्री, स्वयं श्रीजनकी जी, अपना शरीर, घर, परिवार तथा और भी हित-नातावाले उतने प्रिय नहीं हैं, जितने कि आपलोग हैं ।।
मैं यह सत्य-सत्य कह रहा हूँ, यहीं मेरी विरदावली है । वैसे तो यह रीति है कि सेवक सभी को प्यारे होते हैं, परंतु मुझको अपने दास (भक्त) पर सबसे बढ़कर प्रीति रहती है ।।
भक्ति के अलावा अन्य प्रकार के रिश्तों की गणना भक्तवत्सल भगवान दरबार में है ही नहीं । शबरी से स्पष्ट कहा गया है - "मानउं एक भगति कर नाता ।।"
भक्त निषाद को "सखा" का दरजा मिला ही, कोल - किरातों तक को कृतार्थ किया गया । भगतिवंत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी । मेरे प्रभु ही ऐसे अनुपम भक्तवत्सल हैं जो सभी प्रकार के भक्तों का सदा ही ख्याल रखते हैं ।।
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