हमारे यहाँ कोई जातिवाद नहीं है, और अगर है भी तो ये छुआछूत नहीं है, बल्कि यह हमारे हिन्दू धर्म के समाजवाद का एक अकाट्य हिस्सा है ।। Jativad Chhuaachut Nahi. - स्वामी जी महाराज.

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हमारे यहाँ कोई जातिवाद नहीं है, और अगर है भी तो ये छुआछूत नहीं है, बल्कि यह हमारे हिन्दू धर्म के समाजवाद का एक अकाट्य हिस्सा है ।। Jativad Chhuaachut Nahi.

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जय श्रीमन्नारायण,


Sansthanam.
मित्रों, धर्म की गलत व्याखाओं का दौर प्राचीन समय से ही जारी है । महर्षि वेदव्यास जी की जाति क्या थी ? जिन्होंने पुराणों की रचना की । वैदिक सिद्धान्तों की उपेक्षा करके कुछेक लोगों ने मनमानी करनी शुरू कर दी, तब से ही हमारे संगठित समाज में जातियों की शुरुआत होने लगी । क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें ? विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी जाति थी ? क्या हम कालीका माता को दलित समाज का मानकर पूजना छोड़ दें ?

आज के शब्दों का इस्तेमाल करें, तो ये लोग दलित थे - महर्षि वेद व्यास, महर्षि महिदास आत्रैय, महर्षि वाल्मीकि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं, जिन्हें आज की जातिवादी व्यवस्था दलित वर्ग का मान सकती है । ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं, जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे । वेदों के द्रष्टा ऋषिजन एवं मनु स्मृति को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने वाले जातिगत ब्राह्मण नहीं थे, अपितु ज्ञान और चरित्र से ब्राह्मण थे ।।

अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को दोषी ठहराया जाता है । लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है । इस मुद्दे पर धर्म शस्त्रों में क्या लिखा है, यह जानना बहुत जरूरी है । क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है, और आज भी बदस्तूर ये कार्य किया जा रहा है ।।

पहली बात यह कि जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है । हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है । क्यों ? यही जानना जरूरी है । अक्स़र लोगों की टिप्पणियां, बहस या उनका गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है । कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं, इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं, और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है ।।

दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया । इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे, वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए । आज जो नाम दिए गए हैं,  वह पिछले 60 वर्ष की राजनीति की उपज है, और इससे पहले जो नाम दिए गए थे, वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज थी ।।

बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं, या अब वह बौद्ध हैं । बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं । यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा, परन्तु यह सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया है ।।
भारत ने 900 साल मुगल और अंग्रेजों की गुलामी में बहुत कुछ खोया है । खासकर उसने अपना मूल धर्म और संस्कृति तक को खो  दिए हैं इतना ही नहीं अपितु देश के बहुत से हिस्से भी खो दिये हैं । यह जो भ्रांतियां फैली है तथा इस समाज में जिन कुरीतियों का जन्म हुआ है, इसमें गुलाम जिंदगी का बहुत बड़ा योगदान है । जिन लोगों के गुलाम हम भारतीय थे, उन लोगों ने भारतीयों में फूट डालने के हर संभव प्रयास किए और इसमें वो सफल भी हुए ।।

मित्रों, हमारा मुख्य धर्मग्रंथ वेद है, वेदों का सार उपनिषद है, जिसे वेदांत कहते हैं, और उपनिषदों का सार गीता है । इसके अलावा इन्हीं वेदों की विस्तृत व्याख्या के रूप में तथा नए अविष्कारों से भरे हुए, अन्य शास्त्रों की रचना भी हमारे प्रबुद्ध मनीषियों द्वारा किए गए हैं । मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत ये सभी हम हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ, हमारे पूर्वजों की अमिट कीर्ति है, जो इतिहास के रूप में दर्ज है ।।

लेकिन कुछ लोगों को देखता हूँ, कि इन ग्रंथों में से संस्कृत के कुछ श्लोकों को लेकर, उनका प्रमाण देकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि ऊंच-नीच की बातें तो इन धर्मग्रंथों में ही लिखी है । असल में यह काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते समाज का चित्रण है । दूसरी बात कि इस बात की क्या गारंटी है, कि हमारे ग्रंथों में जानबूझकर बदलाव न किया गया हो । इसका कारण हमारे अंग्रेज भाई एवं उनके भी बाद के कुछ हमारे कम्यूनिष्ट भाइ । जिनके हाथ में ही तो था हमारे सभी साहित्यों को समाज के सामने प्रस्तुत करने की जिम्मेवारी । तब ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से तोड़ मरोड़कर बर्बाद कर दिया गया हो हमारे वैदिक सिद्धान्तों को ।।

मित्रों, कर्म का विभाजन- वेद या स्मृति में श्रमिकों को चार वर्गो- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के रूप में विभक्त किया गया है । जिनका उद्देश्य किसी को ऊँच-या-नीचा दिखाना नहीं था । बल्कि मनुष्यों की स्वाभाविक प्रकृति पर आधारित थी, यह विभाजन जन्म पर आधारित नहीं था । मित्रों कुछ वर्षों पूर्व हमारे देश में परंपरागत कार्य करने वालों का एक समाज विकसित होता गया । जिसमें से लगभग सभी लोगों ने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट मानने की भूल की । इन विचारधाराओं में धर्म का कोई दोष तो है नहीं, फिर भी कुछ लोगों की आदत सी बन गयी है धर्म की गलती ठहराने की । अगर आप स्वयं धर्म के सिद्धान्तों की उपेक्षा करके मनमानी करते हैं और परिणाम गलत निकले तो उसमें धर्म का क्या दोष है ?।।
प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने प्रयास से प्राप्त किया जाता था, जैसे कि आज वर्तमान में एमए, एमबीबीएस आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं । जन्म के आधार पर एक पत्रकार के पुत्र को पत्रकार, इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं कहा जा सकता है । ये अधिकार तब तक किसी को नहीं मिलता जबतक की वह आईएएस की परीक्षा नहीं दे देता । ऐसा ही उस काल में गुरुकुल से जो जैसी भी शिक्षा लेकर निकलता था उसे उस तरह की पदवी दी जाती थी ।।

किसी भी समाज में लगभग इस दो प्रकार के लोग होते हैं - अगड़े और पिछड़े । यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित । पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति । पीछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई । सेवा पर आधारित राजनीति पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई ।।

लेखक - अनिरुद्ध जी ।।


Sansthanam Silvassa.  Swami Dhananjay Maharaj.
Sansthana Blog.  Swami Ji Blog.

नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।। नारायण नारायण ।।

1 comment:

  1. अत्यंत सारगर्भित लेख है आदरणीय
    जय श्री मन्नारायण

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