मित्रों, दुःख का अनुभव सब करते हैं, पर उसका वास्तविक कारण जानने की इच्छा किसी किसी को ही होती हैं । दु:खी होने या चिन्तित और निराश रहने से दुःख की निवृत्ति सम्भव नहीं है । ये तो तभी संभव है जब उसके मूल कारण को जान कर उसके निवारण का प्रयत्न किया जाय ।।
मूल रूप में तो यह संसार ही दुःख रूप हैं । इसमें जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सब क्षणिक और अस्थिर हैं । प्रतिक्षण संसार का सारा स्वरुप बदलता रहता हैं । जो वस्तु अभी प्रिय दीखती हैं, कुछ ही क्षणों में कुछ छोटे से कारण उत्पन्न होने पर थोड़ी ही देर में वह अप्रिय बन जाती हैं । कामनाओं और वासनाओं का भी यही हाल हैं । एक तृप्त नहीं हो पाई कि दूसरी नई उपज जाती है ।।
तृष्णाओं का कहीं कोई अन्त नहीं, वासनाओं की कोई सीमा नहीं । पहले कमाई फिर संग्रह उसके बाद भोग फिर भी क्या इन सभी से भी किसी ने आजतक भी अपनी वासनाओं को शान्त किया हैं ? सोंचों आजतक क्या किसी ने घी डाल कर कभी आग बुझाई हैं ? बहुमुखी जीवन से मुख मोड़कर अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी दृष्टि बनाना ही पड़ेगा ।।
मित्रों, इसका एकमात्र उपाय है भगवच्चिन्तन । जी हाँ ! मुझे लगता है, की बिना भगवच्चिन्तन के आज तक किसी को शान्ति नहीं मिली है । हमारे लिए भी इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय या मार्ग नहीं हैं । हमें भी अपने जीवन में सबसे ज्यादा भगवच्चिन्तन को ही प्रधानता देनी चाहिए । जो अपने जीवन में शान्ति का इच्छुक हो उसे ज्यादा-से-ज्यादा भगवान का चिन्तन करना चाहिए । इससे दुःख-दरिद्रता, शान्ति और उन्नति सब सहज ही प्राप्त हो जाता है ।।
आखरी लाइन में प्रिंटिंग मिस्टेक है ।
ReplyDeleteदुःख दरिद्रता निवृत्ती, शांती और उन्नती की प्राप्ती सहज हो जाती है ।।