जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, राजा भर्तृहरि ने बड़े ही काम और ज्ञान की बातें कहीं हैं । उनमें से कुछ पंक्तियों पर आइये आज कुछ चिंतन करें ।।
कहते हैं:-
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः,
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याता-
स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।७।।
अर्थ:- भोगो को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने ही हमें ही भोग लिया । तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए । काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए । इस सभी के बाद भी मेरी कुछ पाने की तृष्णा नहीं गयी (पुराणी नहीं हुई) बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए ।।
अर्थात् हमारे जाने के दिन आ गए लेकिन हमारी तृष्णा कम नहीं हुई ।।
इसीलिए हम मनुष्यों को एक बात का सदैव अपने जीवन में ध्यान रखना चाहिए । आइये राजा भर्तृहरि के शब्दों में ही सुनें:-
वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः क्वापि विषमे
पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः ।।
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः ।। (वैराग्य शतक - श्लोक ७.)
अर्थ:- ऊँचे पर्वत-शिखर से कूद कर अंग भंग हो जाय तो एक बार के लिए ठीक है या हो सकता है ।।
काले नाग के मुख में हाँथों को डाल देने पर सर्प के दंश से हमारे प्राण छूट जाएँ ये भी एक बार के लिए ठीक हो सकता है ।।
अग्नि में गिरकर जल जाने से हमारा शरीर भी जल कर खाक क्यों न हो जाय अर्थात एक बार के लिए ये भी ठीक हो सकता है ।।
लेकिन - ''न कृतः शीलविलयः'' अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना । क्योंकि इसके बाद फिर कुछ भी नहीं बचता है - यहाँ या वहाँ के लिए ।।
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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जयतु संस्कृतम् जयतु भारतम् ।।
।। नमों नारायण ।।
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