जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, संसार का कोई भी कार्य अगर आप करते हैं, तो उसमें लाभ के साथ ही हानि की भी सम्भावनायें होती ही हैं । जैसे व्यापार भी करें तो लाभ और हानि दोनों होते हैं, परन्तु सत्संग में लाभ ही लाभ होता है, नुकसान होने की कोई सम्भावना ही नहीं होती । जैसे माँ की गोद में पड़ा हुआ बालक अपने आप बड़ा होता है । बड़ा होने के लिए उसको किसी प्रकार का उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संग में पड़े रहने से मनुष्य का अपने आप विकास होता है ।।
सत्संग से बुद्धि और विवेक जाग्रत होता है । मनुष्य जितनी अधिक मात्रा में सत्संग करेगा और उस सत्संग से प्राप्त विवेक को महत्व देगा उतना ही अधिक मात्रा में उसके काम - क्रोध आदि विकार नष्ट होंगे । बाद में सत्संग से जागृत विवेक को महत्व देने से वह विवेक ही तत्वज्ञान में परिवर्तित हो जाता है । फिर दूसरी सत्ता का अभाव होने से विकार रहने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता ।। मित्रों, तात्पर्य यह है कि तत्वज्ञान होने पर जीव के अन्दर विकारों का अभाव हो जाता है । किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाये, धन चला जाए तो मनुष्य को शोक होता है । ऐसे ही भविष्य को लेकर चिंता होती है । ये शोक और चिंता भी विवेक को महत्व न देने के कारण ही होते हैं । संसार में परिवर्तन होना, परिस्थितियां बदलना आवश्यक है ।।
यदि परिस्थितियां नहीं बदलेंगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालक से जवान कैसे बनेगा ? मूर्ख से विद्वान कैसे बनेगा ? रोगी से निरोगी कैसे बनेगा ? बीज का वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तन के बिना संसार एक स्थिर चित्र बनकर रह जायेगा । इस प्रकार का विवेक सत्संग से ही आता है । विवेक जाग्रत होता है तो तत्वज्ञान विकसित होने लगता है, यही सत्संग की महिमा है ।। ।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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।। नमों नारायण ।।
मित्रों, संसार का कोई भी कार्य अगर आप करते हैं, तो उसमें लाभ के साथ ही हानि की भी सम्भावनायें होती ही हैं । जैसे व्यापार भी करें तो लाभ और हानि दोनों होते हैं, परन्तु सत्संग में लाभ ही लाभ होता है, नुकसान होने की कोई सम्भावना ही नहीं होती । जैसे माँ की गोद में पड़ा हुआ बालक अपने आप बड़ा होता है । बड़ा होने के लिए उसको किसी प्रकार का उद्योग नहीं करना पड़ता । ऐसे ही सत्संग में पड़े रहने से मनुष्य का अपने आप विकास होता है ।।
सत्संग से बुद्धि और विवेक जाग्रत होता है । मनुष्य जितनी अधिक मात्रा में सत्संग करेगा और उस सत्संग से प्राप्त विवेक को महत्व देगा उतना ही अधिक मात्रा में उसके काम - क्रोध आदि विकार नष्ट होंगे । बाद में सत्संग से जागृत विवेक को महत्व देने से वह विवेक ही तत्वज्ञान में परिवर्तित हो जाता है । फिर दूसरी सत्ता का अभाव होने से विकार रहने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता ।। मित्रों, तात्पर्य यह है कि तत्वज्ञान होने पर जीव के अन्दर विकारों का अभाव हो जाता है । किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाये, धन चला जाए तो मनुष्य को शोक होता है । ऐसे ही भविष्य को लेकर चिंता होती है । ये शोक और चिंता भी विवेक को महत्व न देने के कारण ही होते हैं । संसार में परिवर्तन होना, परिस्थितियां बदलना आवश्यक है ।।
यदि परिस्थितियां नहीं बदलेंगी तो संसार कैसे चलेगा ? मनुष्य बालक से जवान कैसे बनेगा ? मूर्ख से विद्वान कैसे बनेगा ? रोगी से निरोगी कैसे बनेगा ? बीज का वृक्ष कैसे बनेगा ? परिवर्तन के बिना संसार एक स्थिर चित्र बनकर रह जायेगा । इस प्रकार का विवेक सत्संग से ही आता है । विवेक जाग्रत होता है तो तत्वज्ञान विकसित होने लगता है, यही सत्संग की महिमा है ।। ।। सदा सत्संग करें । सदाचारी और शाकाहारी बनें । सभी जीवों की रक्षा करें ।।
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