जय श्रीमन्नारायण,
मित्रों, एक व्यक्ति बड़ा श्रद्धालु था, मजदूरी करता था, साथ-ही-साथ किसी संत के पास जाकर उनकी सेवा बड़ी ही निष्ठा से करता था । सत्संग का प्रेमी था, और एक प्रतिज्ञा भी ले रखा था, कि मैं मजदूरी तो करूँगा लेकिन उसी की जो मेरी सत्संग सुने अथवा मुझे सुनाये । कोई उसे बुलाये तो सर्वप्रथम वो यही शर्त रखता कि या तो मेरी सत्संग सुनना है या फिर मुझे सत्संग सुनाना है ।।
जो भी व्यक्ति उसकी इस शर्त से सहमत होता वो मजदुर उसी का काम करता था । एक बार की बात है, कोई एक सेठजी आये । उनके पास बहुत सारा सामान था, उन्होंने जब अपना सामान उठाने को कहा तो इस मजदूर ने उसका सामान उठाया और सेठ के साथ चलने लगा । हुआ ये कि जल्दी-जल्दी में शर्त की बात बताना भूल गया ।।
मित्रों, आधा रास्ता कट गया तो याद आयी कि आज कुछ सत्संग नहीं हो रहा है, क्यों ? परन्तु जैसे ही उसे याद आई शर्त नहीं बताया तो उसने सामान रख दिया और सेठ से बोला सेठ जी ! बुरा न मानें परन्तु मेरा नियम यह है कि मैं उसी का सामान उठाता हूँ, जो मेरी कथा सुने या फिर अपनी कुछ सत्संग सुनावें । अतः आपसे निवेदन है, कि या तो आप मुझे सुनाओ या फिर मेरी सुनो ।।
सेठजी को जरा जल्दी थी इसलिये बिना मन के भी सेठजी ने कह दिया कि ठीक है तुम ही सुनाओ । मजदूर के वेश में छुपे हुए संत की वाणी से कथा निकलने लगी । मार्ग तय होता चला गया और सेठजी का घर आ गया और सेठजी ने मजदूरी के पैसे दे दिये । मजदूर ने चलते-चलते कहा क्यों सेठजी ! सत्संग याद अच्छा लगा ? सेठजी ने कहा भाई हमने तो कुछ सुना ही नहीं तुम क्या बडबडा रहे थे ।।
मित्रों, सेठजी ने कहा मुझे तो जल्दी थी और आधे रास्ते में दूसरा कहाँ ढूँढने जाऊँ ? बश इसलिए ही तुम्हारी शर्त मान ली और ऐसे ही बिना मन के पुरे रास्ते हाँ… हूँ…. करता रहा । भाई मेरे हमको तो अपने काम से मतलब था तुम्हारी कथा से नहीं । उस भक्त मजदूर ने सोचा कि कैसा अभागा है ! मुफ्त में सत्संग मिल रहा था और सुना नहीं ! यही तो मनुष्य के सर पर उसका पूर्वकृत पाप नृत्य कर रहा है, इसकी पहचान है ।।
“तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय ।
जैसे ज्वर के जोर से भूख विदा होई जाय ।।
उस भक्त मजदुर का मन क्षुभित हो गया, उसे लगा जैसे उसने गोबर में घी डाल दिया हो । उसने सेठजी की ओर देखा और गहरी साँस लेकर बोला सेठजी कल शाम को सात बजे आपकी आयु समाप्त हो रही है । मैंने सोंचा आपके इस दुनिया से विदा होने से पहले कुछ पूण्य करवा दूँ । परन्तु आपने तो पूण्य करने के बजाय उसकी उपेक्षा कर दिया । साधारण मजदुर समझकर सेठजी ने उसकी और उसके बातकी उपेक्षा कर दी ।। मित्रों, सेठजी की भावनाओं को उस मजदुर ने भांप लिया और बोला सेठजी ! अगर साढ़े सात बजे तक जीवित रह गये तो मेरा सिर कटवा देना । अबकी बार सेठजी को लग गया क्योंकि जिस ओज से उसने यह बात कही, सुनकर सेठजी काँपने लगे । भक्त के पैर पकड़ लिये परन्तु भक्त ने कहा सेठजी ! अब आप यमपुरी में जायेंगे तब आपके पाप और पुण्य का हिसाब होगा । आपके जीवन में पाप ज्यादा हैं, पुण्य कम हैं ।।
मजदुर के रूप में उस सन्त ने कहा सेठजी घबराओ मत अभी रास्ते में जो सत्संग सुना, थोड़ा-बहुत उसका पुण्य भी होगा । इसलिये यम के दरबार में जब आपसे पूछा जायेगा कि कौन सा फल पहले भोगना चाहते हो ? पाप का या पुण्य का ? तब आप यमराज के आगे स्वीकार कर लेना कि पाप का फल भोगने को तैयार हूँ पर पुण्य का फल मुझे भोगना नहीं है । पुण्य का फल तो मुझे देखने की इच्छा है ।। मित्रों, मृत्यु के उपरान्त सेठजी जब यमपुरी में पहुँचे । तब वहां चित्रगुप्तजी ने सेठजी के जीवन में किये गये उनके पाप-पुण्यों का हिसाब-किताब पेश किया । यमराज के पूछने पर सेठजी ने कहा कि मैं अपने पुण्य का फल भोगना नहीं चाहता और अपने पापों का फल भोगने से इन्कार नहीं करता । कृपा करके बताइये कि सत्संग के पुण्य का फल क्या होता है ? मैं वह देखना चाहता हूँ ।।
पुण्य का फल देखने की तो कोई व्यवस्था यमपुरी में नहीं थी । पाप-पुण्य के फल भुगताए जाते हैं, दिखाये नहीं जाते । यमराज को कुछ समझ में नहीं आया कारण कि ऐसा मामला तो यमपुरी में पहली बार आया था । अब धर्मराज चित्रगुप्त के साथ उस सेठजी को लेकर ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी भी उलझन में पड़ गये । चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी तीनों सेठजी को लेकर सृष्टि के आदि कारण नारायण के पास लेकर गये । ब्रह्माजी ने भगवान नारायण से पूरे वृतान्त का वर्णन किया यह सुनकर भगवान नारायण मंद-मंद मुस्कुराने लगे ।। मित्रों, भगवान नारायण ने चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी तीनों से कहा ठीक है, जाओ अपना-अपना काम सँभालो । तब सेठजी को नारायण ने कहा दो पल खड़ा रहो । सेठजी बोले प्रभो ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है । कृपा करके मुझे सत्संग का फल क्या होता है ये दिखाने की कृपा करें । भगवान ने कहा सेठजी चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी जैसे देवता आदरसहित तुम्हें यहाँ तक लेकर आये, तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना चाहते हो ? यही तो है सत्संग की महिमा ।।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
तुलसी सत्संग साध की, कटे कोटि अपराध ।।
मित्रों, सत्संग की महिमा ये है, कि जो कोई भी चार कदम चलकर सत्संग में जाता है तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की । सत्संग-श्रवण की महिमा ये है, कि सत्संग सुनने वाले का समस्त पाप-ताप कट जाते हैं । पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है । बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं । तुलसीदास जी को जब पत्नी ने ताना मारा तब उनका वैराग्य जग गया ।। वे भगवान से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभो ! मैं तेरा भक्त बनने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि मैं कुटिल हूँ, कामी हूँ, खल हूँ । मैं तेरे भक्त का सेवक ही बन जाऊं । यदि सेवक भी न बन पाऊँ तो भक्त के घर की गाय ही बना देना स्वामी ! तेरे सेवक तक मेरा दूध पहुँचेगा तब भी मेरा कल्याण हो जाएगा । गाय बनने की योग्यता भी नहीं हो तो तेरे भक्त के घर का घोड़ा बनकर तेरे भक्तों का बोझ भी उठा सकूँ ।।
तेरी चर्चा होगी, वहाँ आने-जाने में मेरा उपयोग होगा तब भी मैं धन्य हो जाऊँगा । घोड़ा बनने की भी पुण्याई नहीं तो मुझे उसके घर का कुत्ता ही बना देना नाथ ! उसके हाथ का रूखा-सूखा टुकड़ा भी मिल जायेगा तो मैं पवित्र हो जाऊँगा और तेरी भक्ति भी हो जाएगी । तुलसीदासजी ने सच्चे हृदय से भगवान से प्रार्थना की और भगवान से उनका नाता जुड़ गया । अन्तर्मुखता बढ़ी तो भगवान ने उनको तुलसीदास से भक्त कवि संत तुलसीदास बना दिया ।।
तुलसी तुलसी क्या करो, तुलसी बन की घास ।
कृपा भयी रघुनाथ की, तो हो गये तुलसीदास ।। मित्रों, भगवान को अपना मानना और अपने को भगवान का मानना यही वह भाव है जो व्रत, तप, तीर्थाटन करने से जो लाभ होता है, उससे कई गुना ज्यादा पूण्य लाभ देता है । ईश्वर हमारा है और हम ईश्वर के हैं, यह दृढ़ भावना रखिए । जीवन में इस बात को चरितार्थ कर लीजिए, बेड़ा पार हो जायेगा । परमात्मा सर्वत्र है, सुलभ हैं, लेकिन ऐसे परमात्मा का अनुभव करानेवाले महात्मा दुर्लभ हैं । ऐसे महात्मा का संग मिल जाय तो जीवन में रंग आ जाये ।।
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
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।। नमों नारायण ।।
मित्रों, एक व्यक्ति बड़ा श्रद्धालु था, मजदूरी करता था, साथ-ही-साथ किसी संत के पास जाकर उनकी सेवा बड़ी ही निष्ठा से करता था । सत्संग का प्रेमी था, और एक प्रतिज्ञा भी ले रखा था, कि मैं मजदूरी तो करूँगा लेकिन उसी की जो मेरी सत्संग सुने अथवा मुझे सुनाये । कोई उसे बुलाये तो सर्वप्रथम वो यही शर्त रखता कि या तो मेरी सत्संग सुनना है या फिर मुझे सत्संग सुनाना है ।।
जो भी व्यक्ति उसकी इस शर्त से सहमत होता वो मजदुर उसी का काम करता था । एक बार की बात है, कोई एक सेठजी आये । उनके पास बहुत सारा सामान था, उन्होंने जब अपना सामान उठाने को कहा तो इस मजदूर ने उसका सामान उठाया और सेठ के साथ चलने लगा । हुआ ये कि जल्दी-जल्दी में शर्त की बात बताना भूल गया ।।
मित्रों, आधा रास्ता कट गया तो याद आयी कि आज कुछ सत्संग नहीं हो रहा है, क्यों ? परन्तु जैसे ही उसे याद आई शर्त नहीं बताया तो उसने सामान रख दिया और सेठ से बोला सेठ जी ! बुरा न मानें परन्तु मेरा नियम यह है कि मैं उसी का सामान उठाता हूँ, जो मेरी कथा सुने या फिर अपनी कुछ सत्संग सुनावें । अतः आपसे निवेदन है, कि या तो आप मुझे सुनाओ या फिर मेरी सुनो ।।
सेठजी को जरा जल्दी थी इसलिये बिना मन के भी सेठजी ने कह दिया कि ठीक है तुम ही सुनाओ । मजदूर के वेश में छुपे हुए संत की वाणी से कथा निकलने लगी । मार्ग तय होता चला गया और सेठजी का घर आ गया और सेठजी ने मजदूरी के पैसे दे दिये । मजदूर ने चलते-चलते कहा क्यों सेठजी ! सत्संग याद अच्छा लगा ? सेठजी ने कहा भाई हमने तो कुछ सुना ही नहीं तुम क्या बडबडा रहे थे ।।
मित्रों, सेठजी ने कहा मुझे तो जल्दी थी और आधे रास्ते में दूसरा कहाँ ढूँढने जाऊँ ? बश इसलिए ही तुम्हारी शर्त मान ली और ऐसे ही बिना मन के पुरे रास्ते हाँ… हूँ…. करता रहा । भाई मेरे हमको तो अपने काम से मतलब था तुम्हारी कथा से नहीं । उस भक्त मजदूर ने सोचा कि कैसा अभागा है ! मुफ्त में सत्संग मिल रहा था और सुना नहीं ! यही तो मनुष्य के सर पर उसका पूर्वकृत पाप नृत्य कर रहा है, इसकी पहचान है ।।
“तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय ।
जैसे ज्वर के जोर से भूख विदा होई जाय ।।
उस भक्त मजदुर का मन क्षुभित हो गया, उसे लगा जैसे उसने गोबर में घी डाल दिया हो । उसने सेठजी की ओर देखा और गहरी साँस लेकर बोला सेठजी कल शाम को सात बजे आपकी आयु समाप्त हो रही है । मैंने सोंचा आपके इस दुनिया से विदा होने से पहले कुछ पूण्य करवा दूँ । परन्तु आपने तो पूण्य करने के बजाय उसकी उपेक्षा कर दिया । साधारण मजदुर समझकर सेठजी ने उसकी और उसके बातकी उपेक्षा कर दी ।। मित्रों, सेठजी की भावनाओं को उस मजदुर ने भांप लिया और बोला सेठजी ! अगर साढ़े सात बजे तक जीवित रह गये तो मेरा सिर कटवा देना । अबकी बार सेठजी को लग गया क्योंकि जिस ओज से उसने यह बात कही, सुनकर सेठजी काँपने लगे । भक्त के पैर पकड़ लिये परन्तु भक्त ने कहा सेठजी ! अब आप यमपुरी में जायेंगे तब आपके पाप और पुण्य का हिसाब होगा । आपके जीवन में पाप ज्यादा हैं, पुण्य कम हैं ।।
मजदुर के रूप में उस सन्त ने कहा सेठजी घबराओ मत अभी रास्ते में जो सत्संग सुना, थोड़ा-बहुत उसका पुण्य भी होगा । इसलिये यम के दरबार में जब आपसे पूछा जायेगा कि कौन सा फल पहले भोगना चाहते हो ? पाप का या पुण्य का ? तब आप यमराज के आगे स्वीकार कर लेना कि पाप का फल भोगने को तैयार हूँ पर पुण्य का फल मुझे भोगना नहीं है । पुण्य का फल तो मुझे देखने की इच्छा है ।। मित्रों, मृत्यु के उपरान्त सेठजी जब यमपुरी में पहुँचे । तब वहां चित्रगुप्तजी ने सेठजी के जीवन में किये गये उनके पाप-पुण्यों का हिसाब-किताब पेश किया । यमराज के पूछने पर सेठजी ने कहा कि मैं अपने पुण्य का फल भोगना नहीं चाहता और अपने पापों का फल भोगने से इन्कार नहीं करता । कृपा करके बताइये कि सत्संग के पुण्य का फल क्या होता है ? मैं वह देखना चाहता हूँ ।।
पुण्य का फल देखने की तो कोई व्यवस्था यमपुरी में नहीं थी । पाप-पुण्य के फल भुगताए जाते हैं, दिखाये नहीं जाते । यमराज को कुछ समझ में नहीं आया कारण कि ऐसा मामला तो यमपुरी में पहली बार आया था । अब धर्मराज चित्रगुप्त के साथ उस सेठजी को लेकर ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी भी उलझन में पड़ गये । चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी तीनों सेठजी को लेकर सृष्टि के आदि कारण नारायण के पास लेकर गये । ब्रह्माजी ने भगवान नारायण से पूरे वृतान्त का वर्णन किया यह सुनकर भगवान नारायण मंद-मंद मुस्कुराने लगे ।। मित्रों, भगवान नारायण ने चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी तीनों से कहा ठीक है, जाओ अपना-अपना काम सँभालो । तब सेठजी को नारायण ने कहा दो पल खड़ा रहो । सेठजी बोले प्रभो ! मुझे सत्संग के पुण्य का फल भोगना नहीं है, अपितु देखना है । कृपा करके मुझे सत्संग का फल क्या होता है ये दिखाने की कृपा करें । भगवान ने कहा सेठजी चित्रगुप्त, धर्मराज और ब्रह्माजी जैसे देवता आदरसहित तुम्हें यहाँ तक लेकर आये, तू मुझे साक्षात देख रहा है, इससे अधिक और क्या देखना चाहते हो ? यही तो है सत्संग की महिमा ।।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।
तुलसी सत्संग साध की, कटे कोटि अपराध ।।
मित्रों, सत्संग की महिमा ये है, कि जो कोई भी चार कदम चलकर सत्संग में जाता है तो यमराज की भी ताकत नहीं उसे हाथ लगाने की । सत्संग-श्रवण की महिमा ये है, कि सत्संग सुनने वाले का समस्त पाप-ताप कट जाते हैं । पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है । बल बढ़ता है दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं । तुलसीदास जी को जब पत्नी ने ताना मारा तब उनका वैराग्य जग गया ।। वे भगवान से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभो ! मैं तेरा भक्त बनने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि मैं कुटिल हूँ, कामी हूँ, खल हूँ । मैं तेरे भक्त का सेवक ही बन जाऊं । यदि सेवक भी न बन पाऊँ तो भक्त के घर की गाय ही बना देना स्वामी ! तेरे सेवक तक मेरा दूध पहुँचेगा तब भी मेरा कल्याण हो जाएगा । गाय बनने की योग्यता भी नहीं हो तो तेरे भक्त के घर का घोड़ा बनकर तेरे भक्तों का बोझ भी उठा सकूँ ।।
तेरी चर्चा होगी, वहाँ आने-जाने में मेरा उपयोग होगा तब भी मैं धन्य हो जाऊँगा । घोड़ा बनने की भी पुण्याई नहीं तो मुझे उसके घर का कुत्ता ही बना देना नाथ ! उसके हाथ का रूखा-सूखा टुकड़ा भी मिल जायेगा तो मैं पवित्र हो जाऊँगा और तेरी भक्ति भी हो जाएगी । तुलसीदासजी ने सच्चे हृदय से भगवान से प्रार्थना की और भगवान से उनका नाता जुड़ गया । अन्तर्मुखता बढ़ी तो भगवान ने उनको तुलसीदास से भक्त कवि संत तुलसीदास बना दिया ।।
तुलसी तुलसी क्या करो, तुलसी बन की घास ।
कृपा भयी रघुनाथ की, तो हो गये तुलसीदास ।। मित्रों, भगवान को अपना मानना और अपने को भगवान का मानना यही वह भाव है जो व्रत, तप, तीर्थाटन करने से जो लाभ होता है, उससे कई गुना ज्यादा पूण्य लाभ देता है । ईश्वर हमारा है और हम ईश्वर के हैं, यह दृढ़ भावना रखिए । जीवन में इस बात को चरितार्थ कर लीजिए, बेड़ा पार हो जायेगा । परमात्मा सर्वत्र है, सुलभ हैं, लेकिन ऐसे परमात्मा का अनुभव करानेवाले महात्मा दुर्लभ हैं । ऐसे महात्मा का संग मिल जाय तो जीवन में रंग आ जाये ।।
।। नारायण सभी का नित्य कल्याण करें ।।
Swami Dhananjay Maharaj.
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।। नमों नारायण ।।
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